प्रथम उपन्यास ‘कलिकथा वाया बायपास’ से ही अलका सरावगी एक सशक्त उपन्यासकार के रूप में स्थापित हो चुकी हैं । अलका सरावगी ने ‘एक ब्रेक के बाद’ उपन्यास के विषय का ताना-बाना समसामायिक कोर्पोरेट जगत को कथावस्तु का आधार लेते हुए बुना है । यह कोर्पोरेट जगत की वैचारिकता (?) और धोखाधड़ी को प्रस्तुत करता है । उपन्यास में कोर्पोरेट जगत की चकाचौंध के बीच देश की एक तिहाई जनता को ‘कुत्ते’ की तरह जिंदगी बिताते हुए दिखाया है, जो देश की सबसे बड़ी विडम्बना है, जबकि कोर्पोरेट वर्ल्ड का मानना है कि ‘ट्रिकल डाउन इफेक्ट’ के अनुसार अंततः इस विकास का लाभ उस जनता को ही पहुँचेगा । “अंतत: आर्थिक सुधार का फायदा गरीबों को होगा । आखिर यह विकास का रास्ता है । ज्यादा नौकरियां होंगी, रूपये का दाम गिरना कम होगा, सामान सस्ता मिलेगा, सेवाओं में ज्यादा लोगों के काम की गुंजाईश होगी । अभी जो पब्लिक सेक्टर और अमीर किसान देश का खून चूस रहे हैं, वह पैसा गरीबों के काम में लगाया जा सकेगा । उसके लिए मुफ्त स्कूल और अस्पताल खोले जा सकेंगे । पूरा देश एक दिन खुशहाल होगा... एक दिन यहां डाल डाल पर सोने की चिडिया बसेरा करेगी ।"1
मार्केटिंग में उच्च पद पर स्थित एक्जीक्यूटिव को प्रमुख चरित्रों के रूप में प्रस्तुत करते हुए सरावगी ने उपन्यास की विषयवस्तु उत्तर आधुनिक उपभोक्तावादी व्यक्ति से जोडी है । के.वी., गुरुचरण उर्फ गुरु और भट्ट ऐसे ही चरित्र हैं जो ग्लोबलाइजेशन के इस समय में ग्लोबल सपनों को बेचते हैं । यह सपने मध्यवर्गीय समाज पर हावी हो रहे हैं और देश की तीस करोड़ निम्न-मध्यवर्गीय जनता का जीवन इन सपनों को प्राप्त करने के सपनों में ही समाप्त हो जाता है । सपनों की आभासी दुनिया (वर्चुअल वर्ल्ड) का सच सामने आता है जब ग्लोबल और आंतरिक सपनों की टकराहट होती है । “अलका सरावगी के इस उपन्यास में असली ब्रेक तब आता है जब सपनों की टकराहटों, व्यक्ति के पार्श्व में छिप गये मनुष्य की आदिम इच्छाओं के साथ पाठक का संपर्क होता है । यह वह बिन्दु है जहाँ उपन्यास में ग्लोबल और आंतरिक सपनों की टकराहट होती है, गुरूचरण अजबदास यानि गुरु के साथ भट्ट जैसे सहज आदमी के साथ गहन आंतरिक संवाद होता है और यह स्पष्ट होता है कि सपनों का सच क्या है।”2 आगे चलकर उपन्यास में गुरु के ही सपने भट्ट के माध्यम से उजागर होते हैं, हिमालय के सपनों की कब्रगाह पर अब नये सपने उग आए हैं ।
‘एक ब्रेक के बाद’ उपन्यास कोर्पोरेट जगत के चरित्रों को अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ प्रस्तुत करता है तथा पाठक के सामने एक नवीन कथ्य को लेकर आता है। के.वी. नामी कंपनियों में मार्केटिंग के उच्च पदों पर रह चुका है । उसने घाट-घाट का पानी पिया है । इंडियन स्काई शॉप को स्काई तक पहुंचाने वाले के. वी. ही है । अपने ऊपर किसी बॉस की तानाशाही हरगिज पसंद न करनेवाला के. वी. कई नामी कंपनियों की नौकरी छोड़ चूका है । स्काई शॉप को छोड़कर कोरडिया के पास पुनः वापस आता है क्योंकि कोरडिया ने उसे हमेशा अपने बराबर सम्मान दिया था । बाद में चलकर वह खुद की ही कार्बन क्रेडिट की कंपनी के.वी.एस.आई. डाल देता है और वैसे भी वह मानता है कि _ “पहले कोई आदमी बरसों तक एक ही कंपनी में काम करता, तो वह वफादार और भरोसेमंद समझा जाता था । अब वह ‘डल’, ‘बोरिंग’ और ‘बुद्धू’ समझा जाता है ।”3 उपन्यास का दूसरा पात्र भट्ट भी किसी की गुलामी करना नहीं चाहता । दिल्ली, नेपाल आदि पूरे भारत में घूमता रहता है और हर छः महिने बाद वापस अपने घर कोलकाता लौट आता है । भट्ट की मौसी कहती है _ “यों ही भटकते-भटकते चालीसी तो आ गई तुम्हें भी । जब देखो दफ्तर बदल लेते हो , नौकरी बदल लेते हो, शहर बदल लेते हो । अब चलो, तुम्हें तुम्हारे जैसे ही एक आदमजात (गुरु) से मिलवा देती हूँ, जो कभी एक जगह टिककर छह महिने भी नहीं रहता ।”4 रंगनाथन का चरित्र भी कुछ ऐसा ही है । इन चरित्रों में अलका सरावगी ने तार्किकता या किसी प्रकार की एक-सूत्रता तलाशने का आधुनिकवादी वृत्तांत समाप्त प्राय कर दिया है और उसके स्थान पर ‘असंगतिपूर्ण संगति’ की उत्तर-आधुनिकतावादी स्थिति को मुखर किया है । गुरु के अनुसार असंगतिपूर्ण संगति की यह स्थिति मूलतः मानव मन से ही संबद्ध है _ “ जानते हो लद्दाख में एक लामा ने बताया था कि आदमी का दिमाग एक दिन में चौरासी करोड़ बार विचारों की उधेड़बुन करता है । इस लिए कोई खास बात नहीं है कि अभी तुम क्या सोच रहे हो ?”5
गुरुचरण उपन्यास का सबसे सशक्त पात्र है जिसको लेकर अन्य सभी चरित्रों के मन में जिज्ञासा बनी रहती हैं । गुरु कभी किसी से अपने बारे में कुछ बात नहीं करता । वह किसी से घनिष्ठ संबंध बनाकर बंधना भी नहीं चाहता, हमेशा मुक्त रहना चाहता है । “मन अलबत्ता कहीं लगेगा नहीं किसी का । चार घंटे में नहीं, तो चार दिन में उब जायेगा । पर घूमता रहेगा आदमी । यहाँ से वहाँ । शायद इस बार मन लग जाए- हमेशा के लिए । ऐसा कुछ भ्रम पालते हुए ।”6 गुरु की यह जीवन-शैली के.वी. और भट्ट दोनों के मन में अनेक भ्रम उत्पन्न करती, जिसके उत्तर पाने की तलाश में भट्ट पहाड़ियाँ खूँदता रहता है और के.वी. बार में बैठे पैक पर पैक पिये जाते हैं । जिज्ञासा, दुविधा और भ्रम के मायाजाल में फँसा व्यक्ति जिंदगी का मक्सद ही नहीं ढूँढ पाता _ “ सुविधाओं के लिए पैसा जरूरी होता है- जैसे समझ लो कि इस पहाड़ की यात्रा करना । इस अर्थ में पैसा सुविधा भी है और आनंद भी है, पर जीवन का असली मकसद तो इसके लिए छोडा़ नहीं जा सकता । अब बस यही ढूँढना बाकी रहा कि जिंदगी का असली मकसद आखिर है क्या ?”7 गुरु से जुड़ा हुआ भ्रम, गुरु का बंधनों को तोड़ना और हमेशा स्वतंत्र जीवन जीने की हिमायत करना आधुनिक विचारधाराओं और विचारात्मक युटोपिया को ध्वस्त कर देता है । कोर्पोरेट वर्ल्ड की उपयोगितावादी / वस्तुवादी दृष्टि और आगे चलकर गुरु द्वारा इस दृष्टि से भी दरकिनार कर के परिधि पर स्थित आदिवासी गुटों से जा मिलना और उनकी ज़मीन के लिए लड़ना आदि आधुनिक महावृत्तांतों को करारी चोट पहुँचाते हैं ।
उपन्यास के उत्तरार्ध में गुरुचरण लापता हो जाता है । गुरु के लापता हो जाने के रहस्य पर से परदा उठ जाने की आशा तब बँधती है जब गुरु की डायरियों का पार्सल के.वी. के घर आता है । दिन भर गुरु की डायरियाँ पढ़कर भी के.वी. उसमें से कोई ऐसी बात नहीं ढूँढ पाता जो उसके मन की व्यग्रता को दूर कर सके, क्योंकि नाम तो गुरुचरण ने लिखा ही नहीं है । पूरी डायरी में एक भी शख्स का नाम नहीं है । शायद इसका यह मतलब हो कि व्यक्ति का कोई महत्व नहीं है । वह कौन है, क्या कर रहा है या क्या सह रहा है, यही जानने की बात है ।8 व्यक्ति विघटन की यह स्थिति फ्रॉइड के सिद्धांत का विलोम है । उत्तर-आधुनिक समय में व्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण स्थितियाँ हो जाती है, जिसमें वह स्वतंत्र रूप से अपनी पसंद का कोई भी कार्य करने के लिए मुक्त है ।
के.वी. और उनके विचार उपन्यास में उसके संपर्क में आने वाले सभी किसी को प्रभावित करते हैं ; पर गुरुचरण की डायरियों में जिस पाठ का आलेखन किया गया है उससे के.वी. का दिमाग चकरा जाता है । तीन बार डायरियाँ पढ़ने पर भी वह इन में से इतना ही समझ पाता है कि उसमें गुरुचरण की कंपनी की वार्षिक रपट मात्र है । के.वी. जिस कोर्पोरेट के नजरिये को लेकर जीवन जिया था वह इन डायरियों में कंपनी की लाभ-हानि के अलावा और कुछ नहीं देख पाती, गुरु के व्यक्तित्व को नहीं समझ पाती । के.वी. हैरान होकर उसे भूलाने की कोशिश करता है, पर संवेदनाहीन होकर एक वस्तु में परिणत हो चुके के.वी. की उलझन तब सुलझती है जब उसकी पत्नी गुरु की डायरियों का सही पाठ उसे समझाती है । “वह जहाँ-जहाँ लिखता है कि- “आप कहते हैं कि...”, वहाँ वह ‘आप’ और कोई नहीं, तुम हो के.वी. । उसने वही बात लिखी है, जो तुमने अभी कही थी । यही कि वह दौ कौड़ी के लोग दौ कोड़ी की ज़मीन से चिपके रहेंगे, देश का विकास रोकने के लिए । तुम चाहो जो कहो के.वी., पर वह तुम्हारा दिमाग पढ़ सकता था के.वी.। तुम जो आगे सोचोगे और कहोगे, वह पहले से जानता था ।”9
रोलाँ बार्थ के ‘लेखक के अंत’ को यहाँ इस परिप्रक्ष्य में देखा जा सकता है । गुरु की डायरियों का पाठ उत्तर-आधुनिक पाठ है, जिसमें भाषा की यादृच्छिकता को नकार दिया गया है । इसका कारण यही है कि यहाँ यथार्थ है ही नहीं, यह अतियथार्थ का दौर है जहाँ संकेतों के द्वारा यथार्थ पकडा जाता है ।
उपन्यास में कोर्पोरेट वर्ल्ड के चरित्रों के माध्यम से उत्तर-आधुनिक समय में बाजार, विज्ञापन और वस्तु के रूप में व्यक्ति को भी उपयोगितावादी दृष्टि से देखना आदि की सफल प्रस्तुति हुई है । यहाँ हर व्यक्ति दूसरी व्यक्ति को उपयोगितावादी दृष्टि से देखता है । उपन्यास की शुरुआत से ही अय्यर दम्पति शीतयुद्ध की तरह ठंड़े घर्षण की स्थिति में जी रहे । किंतु इंडियन स्काईशॉप को बुलंदियों तक पहुँचाने के लिए के.वी. पत्नी का एक वस्तु के रूप में उपयोग करते हैं, रंगनाथन के अनेक हथकंडो का उपयोग कर वह अपनी कंपनी की मार्केटिंग करता है, साथ ही ‘असफल जीनियस को कौन पूछता है’ भी कहता है और उपन्यास के उत्तरार्ध में कार्बन क्रेडिट के लिए नौकर रामा का उपयोग करता है जिससे रामा जैसे कई किसानों को पैरों से चलानेवाला ‘ट्रेडल’ देकर कार्बन क्रेडिट के द्वारा मुनाफा कमा सके । “सरकार, कंपनी और किसान सब अपना अपना फायदा देख रहे हैं । के.वी. को किसी से क्या मतलब और किसी को के.वी से क्या ?”10 ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में बाजार ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की संकल्पना को भी नए परिप्रेक्ष्य (कार्बन क्रेडिट) में प्रस्तुत करता है ।
वर्तमान बाजारवादी व्यूहरचनाएँ किस प्रकार भारतीय जनता की जीवनशैली में परिवर्तन लाती है इस बात पर अलका सरावगी ने प्रकाश डाला है । “इस पोस्ट-ग्लोबल दुनिया में जवान दिखना, सुंदर दिखना, वजन घटाना अरबों डॉलरों का कारोबार है । लेकिन कम-से-कम इंडिया में ज्यदातर लोग यह नहीं चाहेंगे कि किसी को पता चले कि वे इस तरह के कामों के लिए पैसे खर्च कर रहे हैं।11 अलका सरावगी ने विज्ञापन को श्रद्धा के बरक्स खड़ा किया है । वैसे श्रद्धा को आधुनिकतावादी तर्क ने ही खारिज कर दिया था पर इस उपन्यास में सरावगी जी ने विज्ञापन को श्रद्धा के समान ऊँचाई पर प्रतिष्ठापित कर दिया है अर्थात् अब श्रद्धा का केन्द्र ईश्वर से बदलकर बदलकर व्यक्ति हो गया है । _ “रविकान्त के जन्मदिन पर सुबह सात बजे से लोग ‘एम्बर डिपार्टमेंन्टल स्टोर’ के बाहर बीबी-बच्चों सहित लाइन लगाकर खड़े हो गए थे, जैसे तिरूपति बालाजी के दर्शन के लिए खड़े हो ।” 12 कोर्पोरेट इंडिया बनाम पोंगापंथी भारत में सरावगी के.वी. के माध्यम से स्पष्ट ही कहलवाती है कि, खरीदनेवाले चाहे तो खरीदें । हमें तो सिर्फ कुछ बेचने से मतलब है । कोई अन्धविश्वासी हो, तो उससे हमें क्या ?
‘एक ब्रेक के बाद’ उपन्यास में प्रेम के जिस रूप की आकांक्षा गुरुचरण करता है वह किसी को किसी भी प्रकार के बंधन में नहीं बाँधता । वह मानता है कि प्रेम में किसी प्रकार की ईर्ष्या नहीं होती वरन् पूर्ण समर्पण होता है । गुरुचरण प्रेम के विषय में कहता है_ “मैं देखना चाहता हूं क्या कोई औरत मेरे लिए कृष्ण की मीरा बन सकती है? कोई राधा की तरह प्रेम कर सकती है ? लोग शर्तों पर प्रेम करते हैं... लोग कुनकुना प्रेम करते हैं... प्रेम के आभास को प्रेम समझ लेते हैं ।”13 इसी लिए गुरु जीवन भर शादी नहीं करता “क्योंकि मुझे कहीं असली प्रेम नहीं मिला । जो मिला, जहाँ मिला, उसमें हमेशा कोई न कोई कसर थी । मुझे समझौता नहीं करना था ।”14 इसी लिए वह अलग-अलग स्त्रियों के संपर्क में रहकर सच्चे प्रेम की तलाश करता है । उपन्यास में प्रेम का स्वतंत्र और उत्तर-आधुनिक रूप तब सामने आता है जब रुक्मिणी का पति भट्ट को कहता है गुरु से प्रेम करने से पहले रुक्मिणी प्रेम का अर्थ नहीं जानती थी । वही एकदम अधूरी थी । मैं अपनी कालेज के दिनों में एक लड़की से बेतहाशा प्रेम करता था पर, हमारी शादी नहीं हो सकी थी । इस बात के लिए रुक्मिणी ने मुझे तब तक माफ नहीं किया था जब तक वह खुद गुरु से प्रेम नहीं करने लगी थी । गुरु के हमारे जीवन में आने से ही मैं और रुक्मिणी एक सच्चे दोस्त बन पाए । पहले उसकी देह एक दम निष्प्राण, कडी और सूखी रहती । बाद में जब प्रेम का ज्वार आया ......”15 रुक्मिणि के पति के इस कथन में जहाँ अलका सरावगी नारी की देह-मुक्ति के रूप में नारी के अस्मितावादी विमर्श की संभावना को प्रस्तुत किया है । दूसरी तरफ प्रेम की इस प्रकार की अभिव्यक्ति जो अब तक अप्रस्तुति योग्य ही मानी जाती रही है उसे सरावगी ने उत्तर-आधुनिक परिवेश में प्रस्तुत किया है । नारी विमर्शवादी दृष्टि से देखते हुए अलका सरावगी ने यहाँ पर प्रेम की पुरानी परिभाषा को पूरी तरह उलटा दिया है ।
इस प्रकार ‘एक ब्रेक के बाद’ उपन्यास में अलाका सरावगी ने कोर्पोरेट वर्ल्ड को विषय-वस्तु का आधार बनाते हुए व्यक्ति के सपने, जिज्ञासा, भ्रम और मानव मन की उलझनों को उत्तर-आधुनिक दृष्टि के परिप्रक्ष्य में प्रस्तुत किया है । बाजार एक तरफ सामान्य व्यक्ति को सपने दिखाता है, जिसको पूरा करना उसके लिए कठिन है, पर फिर भी वह उसे पूरा करने की दौड़ में लग जाता है । वहीं दूसरी तरफ बाज़ारवाद व्यक्ति को केवल एक वस्तु के रूप में देखता है, जो मात्र अपना उत्पाद बेचने से मतलब रखता है । मानवीय संवेदना किस प्रकार वस्तुवादी दृष्टि में परिवर्तित हो रही है उसका एक दस्तावेज बनकर यह उपन्यास पाठक के सामने आता है । हर छह महिने में नये शहर में नई नौकरी के लिए भटक रहे उपन्यास के चरित्र ‘असंगतिपूर्ण संगति’ की उत्तर-आधुनिक स्थिति को ही प्रस्तुत करते हैं । गुरु का रहस्यमय जीवन उपन्यास के अन्य पात्रों में जिज्ञासा और भ्रम का मायाजाल बनाते हैं जिसमें विचारधाराएँ स्वाहा हो जाती है और महावृत्तांतों को करारी चोट मिलती है । ईर्ष्या मुक्त प्रेम में किसी तीसरे का सहज स्वीकार करते हुए प्रेम का जो रूप इस उपन्यास में प्रस्तुत किया गया है वह न केवल प्रेम की परंपरावादी विचारधाराओं से मुक्ति दिलाता है बल्कि नारीवादी विमर्श को भी प्रस्तुत करते हुए नारी की पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा भी करता है । उपन्यास के उत्तरार्ध में आदिवासी समूहों को प्रधानता देकर परिधि पर स्थित समूह को केन्द्र में लाया गया है जो उत्तर-आधुनिकता की प्रमुख पहचान है । के.वी की डायरियों का पाठ एक उत्तर-आधुनिक पाठ है जो के.वी. को उलझाकर रख देता है, क्योंकि अतियथार्थ संकेतो से पकडना पडता है । इस प्रकार यह उपन्यास उत्तर-आधुनिकतावाद को प्रस्तुत करता है ।
संदर्भ
1 एक ब्रेक के बाद, अलका सरावगी, पृष्ठ सं. 52
2 हितेन्द्र पटेल, http://hittisaba.blogspot.com/2009/08/blog-post.html
3 एक ब्रेक के बाद, अलका सरावगी, पृष्ठ सं. 73
4 वही, पृष्ठ सं. 30
5 वही, पृष्ठ सं. 65
6 वही, पृष्ठ सं. 33
7 वही, पृष्ठ सं. 61
8 वही, पृष्ठ सं. 169
9 वही, पृष्ठ सं. 172
10 वही, पृष्ठ सं. 149
11 वही, पृष्ठ सं. 119
12 वही, पृष्ठ सं. 68
13 वही, पृष्ठ सं. 93
14 वही, पृष्ठ सं. 88
15 वही, पृष्ठ सं. 109
1 टिप्पणी:
पाठ की सुंदर समीक्षा हुई है। पढ़कर अच्छा लगा।
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