हिंदी विभाग, गुजरात विश्वविद्यालय

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

अलका सरावगी का उपन्यास “एक ब्रेक के बाद” और उत्तर-आधुनिकतावाद

प्रथम उपन्यास कलिकथा वाया बायपास से ही अलका सरावगी एक सशक्त उपन्यासकार के रूप में स्थापित हो चुकी हैं । अलका सरावगी ने एक ब्रेक के बाद उपन्यास के विषय का ताना-बाना समसामायिक कोर्पोरेट जगत को कथावस्तु का आधार लेते हुए बुना है । यह कोर्पोरेट जगत की वैचारिकता (?) और धोखाधड़ी को प्रस्तुत करता है । उपन्यास में कोर्पोरेट जगत की चकाचौंध के बीच देश की एक तिहाई जनता को कुत्ते की तरह जिंदगी बिताते हुए दिखाया है, जो देश की सबसे बड़ी विडम्बना है, जबकि कोर्पोरेट वर्ल्ड का मानना है कि ट्रिकल डाउन इफेक्ट के अनुसार अंततः इस विकास का लाभ उस जनता को ही पहुँचेगा । अंतत: आर्थिक सुधार का फायदा गरीबों को होगा आखिर यह विकास का रास्ता है  ज्यादा नौकरियां होंगी,  रूपये का दाम गिरना कम होगा,  सामान सस्ता मिलेगा, सेवाओं में ज्यादा लोगों के काम की गुंजाईश होगी अभी जो पब्लिक सेक्टर और अमीर किसान देश का खून चूस रहे हैं, वह पैसा गरीबों के काम में लगाया जा सकेगा उसके लिए मुफ्त स्कूल और अस्पताल खोले जा सकेंगे पूरा देश एक दिन खुशहाल होगा... एक दिन यहां डाल डाल पर सोने की चिडिया बसेरा करेगी"1
मार्केटिंग में उच्च पद पर स्थित एक्जीक्यूटिव को प्रमुख चरित्रों के रूप में प्रस्तुत करते हुए सरावगी ने उपन्यास की विषयवस्तु उत्तर आधुनिक उपभोक्तावादी व्यक्ति से जोडी है । के.वी., गुरुचरण उर्फ गुरु और भट्ट ऐसे ही चरित्र हैं जो ग्लोबलाइजेशन के इस समय में ग्लोबल सपनों को बेचते हैं । यह सपने मध्यवर्गीय समाज पर हावी हो रहे हैं और देश की तीस करोड़ निम्न-मध्यवर्गीय जनता का जीवन इन सपनों को प्राप्त करने के सपनों में ही समाप्त हो जाता है । सपनों की आभासी दुनिया (वर्चुअल वर्ल्ड) का सच सामने आता है जब ग्लोबल और आंतरिक सपनों की टकराहट होती है । अलका सरावगी के इस उपन्यास में असली ब्रेक तब आता है जब सपनों की टकराहटों, व्यक्ति के पार्श्व में छिप गये मनुष्य की आदिम इच्छाओं के साथ पाठक का संपर्क होता है यह वह बिन्दु है जहा उपन्यास में ग्लोबल और आंतरिक सपनों की टकराहट होती है, गुरूचरण अजबदास यानि गुरु के साथ भट्ट जैसे सहज आदमी के साथ गहन आंतरिक संवाद होता है और यह स्पष्ट होता है कि सपनों का सच क्या है2 आगे चलकर उपन्यास में गुरु के ही सपने भट्ट के माध्यम से उजागर होते हैं, हिमालय के सपनों की कब्रगाह पर अब नये सपने उग आए हैं
      एक ब्रेक के बाद उपन्यास कोर्पोरेट जगत के चरित्रों को अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ प्रस्तुत करता है तथा पाठक के सामने एक नवीन कथ्य को लेकर आता है। के.वी. नामी कंपनियों में मार्केटिंग के उच्च पदों पर रह चुका है । उसने घाट-घाट का पानी पिया है । इंडियन स्काई शॉप को स्काई तक पहुंचाने वाले के. वी. ही है । अपने ऊपर किसी बॉस की तानाशाही हरगिज पसंद न करनेवाला के. वी. कई नामी कंपनियों की नौकरी छोड़ चूका है । स्काई शॉप को छोड़कर कोरडिया के पास पुनः वापस  आता है क्योंकि कोरडिया ने उसे हमेशा अपने बराबर सम्मान दिया था । बाद में चलकर वह खुद की ही कार्बन क्रेडिट की कंपनी के.वी.एस.आई. डाल देता है और वैसे भी वह मानता है कि _ पहले कोई आदमी बरसों तक एक ही कंपनी में काम करता, तो वह वफादार और भरोसेमंद समझा जाता था । अब वह डल, बोरिंग और बुद्धू समझा जाता है ।3 उपन्यास का दूसरा पात्र भट्ट भी किसी की गुलामी करना नहीं चाहता । दिल्ली, नेपाल आदि पूरे भारत में घूमता रहता है और हर छः महिने बाद वापस अपने घर कोलकाता लौट आता है । भट्ट की मौसी कहती है _ यों ही भटकते-भटकते चालीसी तो आ गई तुम्हें भी । जब देखो दफ्तर बदल लेते हो , नौकरी बदल लेते हो, शहर बदल लेते हो । अब चलो, तुम्हें तुम्हारे जैसे ही एक आदमजात (गुरु) से मिलवा देती हूँ, जो कभी एक जगह टिककर छह महिने भी नहीं रहता ।4 रंगनाथन का चरित्र भी कुछ ऐसा ही है । इन चरित्रों में अलका सरावगी ने तार्किकता या किसी प्रकार की एक-सूत्रता तलाशने का आधुनिकवादी वृत्तांत समाप्त प्राय कर दिया है और उसके स्थान पर असंगतिपूर्ण संगति की उत्तर-आधुनिकतावादी स्थिति को मुखर किया है । गुरु के अनुसार असंगतिपूर्ण संगति की यह स्थिति मूलतः मानव मन से ही संबद्ध है _ जानते हो लद्दाख में एक लामा ने बताया था कि आदमी का दिमाग एक दिन में चौरासी करोड़ बार विचारों की उधेड़बुन करता है । इस लिए कोई खास बात नहीं है कि अभी तुम क्या सोच रहे हो ?”5 
      गुरुचरण उपन्यास का सबसे सशक्त पात्र है जिसको लेकर अन्य सभी चरित्रों के मन में जिज्ञासा बनी रहती हैं । गुरु कभी किसी से अपने बारे में कुछ बात नहीं करता । वह किसी से घनिष्ठ संबंध बनाकर बंधना भी नहीं चाहता, हमेशा मुक्त रहना चाहता है । मन अलबत्ता कहीं लगेगा नहीं किसी का । चार घंटे में नहीं, तो चार दिन में उब जायेगा । पर घूमता रहेगा आदमी । यहाँ से वहाँ । शायद इस बार मन लग जाए- हमेशा के लिए । ऐसा कुछ भ्रम पालते हुए ।6 गुरु की यह जीवन-शैली के.वी. और भट्ट दोनों के मन में अनेक भ्रम उत्पन्न करती, जिसके उत्तर पाने की तलाश में भट्ट पहाड़ियाँ खूँदता रहता है और के.वी. बार में बैठे पैक पर पैक पिये जाते हैं । जिज्ञासा, दुविधा और भ्रम के मायाजाल में फँसा व्यक्ति जिंदगी का मक्सद ही नहीं ढूँढ पाता _ सुविधाओं के लिए पैसा जरूरी होता है- जैसे समझ लो कि इस पहाड़ की यात्रा करना । इस अर्थ में पैसा सुविधा भी है और आनंद भी है, पर जीवन का असली मकसद तो इसके लिए छोडा़ नहीं जा सकता । अब बस यही ढूँढना बाकी रहा कि जिंदगी का असली मकसद आखिर है क्या ?”7 गुरु से जुड़ा हुआ भ्रम, गुरु का बंधनों को तोड़ना और हमेशा स्वतंत्र जीवन जीने की हिमायत करना आधुनिक विचारधाराओं और विचारात्मक युटोपिया को ध्वस्त कर देता है । कोर्पोरेट वर्ल्ड की उपयोगितावादी / वस्तुवादी दृष्टि और आगे चलकर गुरु द्वारा इस दृष्टि से भी दरकिनार कर के परिधि पर स्थित आदिवासी गुटों से जा मिलना और उनकी ज़मीन के लिए लड़ना आदि आधुनिक महावृत्तांतों को करारी चोट पहुँचाते हैं ।     
      उपन्यास के उत्तरार्ध में गुरुचरण लापता हो जाता है । गुरु के लापता हो जाने के रहस्य पर से परदा उठ जाने की आशा तब बँधती है जब गुरु की डायरियों का पार्सल के.वी. के घर आता है । दिन भर गुरु की डायरियाँ पढ़कर भी के.वी. उसमें से कोई ऐसी बात नहीं ढूँढ पाता जो उसके मन की व्यग्रता को दूर कर सके, क्योंकि नाम तो गुरुचरण ने लिखा ही नहीं है । पूरी डायरी में एक भी शख्स का नाम नहीं है । शायद इसका यह मतलब हो कि व्यक्ति का कोई महत्व नहीं है । वह कौन है, क्या कर रहा है या क्या सह रहा है, यही जानने की बात है ।8 व्यक्ति विघटन की यह स्थिति फ्रॉइड के सिद्धांत का विलोम है । उत्तर-आधुनिक समय में व्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण स्थितियाँ हो जाती है, जिसमें वह स्वतंत्र रूप से अपनी पसंद का कोई भी कार्य करने के लिए मुक्त है ।
      के.वी. और उनके विचार उपन्यास में उसके संपर्क में आने वाले सभी किसी को प्रभावित करते हैं ; पर गुरुचरण की डायरियों में जिस पाठ का आलेखन किया गया है उससे के.वी. का दिमाग चकरा जाता है । तीन बार डायरियाँ पढ़ने पर भी वह इन में से इतना ही समझ पाता है कि उसमें गुरुचरण की कंपनी की वार्षिक रपट मात्र है । के.वी. जिस कोर्पोरेट के नजरिये को लेकर जीवन जिया था वह इन डायरियों में कंपनी की लाभ-हानि के अलावा और कुछ नहीं देख पाती, गुरु के व्यक्तित्व को नहीं समझ पाती । के.वी. हैरान होकर उसे भूलाने की कोशिश करता है, पर संवेदनाहीन होकर एक वस्तु में परिणत हो चुके के.वी. की उलझन तब सुलझती है जब उसकी पत्नी गुरु की डायरियों का सही पाठ उसे समझाती है । वह जहाँ-जहाँ लिखता है कि- आप कहते हैं कि..., वहाँ वह आप और कोई नहीं, तुम हो के.वी. । उसने वही बात लिखी है, जो तुमने अभी कही थी । यही कि वह दौ कौड़ी के लोग दौ कोड़ी की ज़मीन से चिपके रहेंगे, देश का विकास रोकने के लिए । तुम चाहो जो कहो के.वी., पर वह तुम्हारा दिमाग पढ़ सकता था के.वी.। तुम जो आगे सोचोगे और कहोगे, वह पहले से जानता था ।9 
रोलाँ बार्थ के लेखक के अंत को यहाँ इस परिप्रक्ष्य में देखा जा सकता है । गुरु की डायरियों का पाठ उत्तर-आधुनिक पाठ है, जिसमें भाषा की यादृच्छिकता को नकार दिया गया है । इसका कारण यही है कि यहाँ यथार्थ है ही नहीं, यह अतियथार्थ का दौर है जहाँ संकेतों के द्वारा यथार्थ पकडा जाता है ।         
      उपन्यास में कोर्पोरेट वर्ल्ड के चरित्रों के माध्यम से उत्तर-आधुनिक समय में बाजार, विज्ञापन और वस्तु के रूप में व्यक्ति को भी उपयोगितावादी दृष्टि से देखना आदि की सफल प्रस्तुति हुई है । यहाँ हर व्यक्ति दूसरी व्यक्ति को उपयोगितावादी दृष्टि से देखता है । उपन्यास की शुरुआत से ही अय्यर दम्पति शीतयुद्ध की तरह ठंड़े घर्षण की स्थिति में जी रहे । किंतु इंडियन स्काईशॉप को बुलंदियों तक पहुँचाने के लिए के.वी. पत्नी का एक वस्तु के रूप में उपयोग करते हैं, रंगनाथन के अनेक हथकंडो का उपयोग कर वह अपनी कंपनी की मार्केटिंग करता है, साथ ही असफल जीनियस को कौन पूछता है भी कहता है और उपन्यास के उत्तरार्ध में कार्बन क्रेडिट के लिए नौकर रामा का उपयोग करता है जिससे रामा जैसे कई किसानों को पैरों से चलानेवाला ट्रेडल देकर कार्बन क्रेडिट के द्वारा मुनाफा कमा सके । सरकार, कंपनी और किसान सब अपना अपना फायदा देख रहे हैं । के.वी. को किसी से क्या मतलब और किसी को के.वी से क्या ?”10 ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में बाजार वसुधैव कुटुम्बकम् की संकल्पना को भी नए परिप्रेक्ष्य (कार्बन क्रेडिट) में प्रस्तुत करता है ।
      वर्तमान बाजारवादी व्यूहरचनाएँ किस प्रकार भारतीय जनता की जीवनशैली में परिवर्तन लाती है इस बात पर अलका सरावगी ने प्रकाश डाला है । इस पोस्ट-ग्लोबल दुनिया में जवान दिखना, सुंदर दिखना, वजन घटाना अरबों डॉलरों का कारोबार है । लेकिन कम-से-कम इंडिया में ज्यदातर लोग यह नहीं चाहेंगे कि किसी को पता चले कि वे इस तरह के कामों के लिए पैसे खर्च कर रहे  हैं।11 अलका सरावगी ने विज्ञापन को श्रद्धा के बरक्स खड़ा किया है । वैसे श्रद्धा को आधुनिकतावादी तर्क ने ही खारिज कर दिया था पर इस उपन्यास में सरावगी जी ने विज्ञापन को श्रद्धा के समान ऊँचाई पर प्रतिष्ठापित कर दिया है अर्थात् अब श्रद्धा का केन्द्र ईश्वर से बदलकर  बदलकर व्यक्ति हो गया है । _ रविकान्त के जन्मदिन पर सुबह सात बजे से लोग एम्बर डिपार्टमेंन्टल स्टोर के बाहर बीबी-बच्चों सहित लाइन लगाकर खड़े हो गए थे, जैसे तिरूपति बालाजी के दर्शन के लिए खड़े हो । 12 कोर्पोरेट इंडिया बनाम पोंगापंथी भारत में सरावगी के.वी. के माध्यम से स्पष्ट ही कहलवाती है कि,  खरीदनेवाले चाहे तो खरीदें । हमें तो सिर्फ कुछ बेचने से मतलब है । कोई अन्धविश्वासी हो, तो उससे हमें क्या ? 
      एक ब्रेक के बाद उपन्यास में प्रेम के जिस रूप की आकांक्षा गुरुचरण करता है वह किसी को किसी भी प्रकार के बंधन में नहीं बाँधता । वह मानता है कि प्रेम में किसी प्रकार की ईर्ष्या नहीं होती वरन् पूर्ण समर्पण होता है । गुरुचरण प्रेम के विषय में कहता है_ मैं देखना चाहता हूं क्या कोई औरत मेरे लिए कृष्ण की मीरा बन सकती है? कोई राधा की तरह प्रेम कर सकती है ? लोग शर्तों पर प्रेम करते हैं... लोग कुनकुना प्रेम करते हैं... प्रेम के आभास को प्रेम समझ लेते हैं13 इसी लिए गुरु जीवन भर शादी नहीं करता क्योंकि मुझे कहीं असली प्रेम नहीं मिला । जो मिला, जहाँ मिला, उसमें हमेशा कोई न कोई कसर थी । मुझे समझौता नहीं करना था ।14 इसी लिए वह अलग-अलग स्त्रियों के संपर्क में रहकर सच्चे प्रेम की तलाश करता है । उपन्यास में प्रेम का स्वतंत्र और उत्तर-आधुनिक रूप तब सामने आता है जब रुक्मिणी का पति भट्ट को कहता है गुरु से प्रेम करने से पहले रुक्मिणी प्रेम का अर्थ नहीं जानती थी । वही एकदम अधूरी थी । मैं अपनी कालेज के दिनों में एक लड़की से बेतहाशा प्रेम करता था पर, हमारी शादी नहीं हो सकी थी । इस बात के लिए रुक्मिणी ने मुझे तब तक माफ नहीं किया था जब तक वह खुद गुरु से प्रेम नहीं करने लगी थी । गुरु के हमारे जीवन में आने से ही मैं और रुक्मिणी एक सच्चे दोस्त बन पाए । पहले उसकी देह एक दम निष्प्राण, कडी और सूखी रहती । बाद में जब प्रेम का ज्वार आया ......15 रुक्मिणि के पति के इस कथन में जहाँ अलका सरावगी नारी की देह-मुक्ति के रूप में नारी के अस्मितावादी विमर्श की संभावना को प्रस्तुत किया है । दूसरी तरफ प्रेम की इस प्रकार की अभिव्यक्ति जो अब तक अप्रस्तुति योग्य ही मानी जाती रही है उसे सरावगी ने उत्तर-आधुनिक परिवेश में प्रस्तुत किया है । नारी विमर्शवादी दृष्टि से देखते हुए अलका सरावगी ने यहाँ पर प्रेम की पुरानी परिभाषा को पूरी तरह उलटा दिया है । 
      इस प्रकार एक ब्रेक के बाद उपन्यास में अलाका सरावगी ने कोर्पोरेट वर्ल्ड को विषय-वस्तु का आधार बनाते हुए व्यक्ति के सपने, जिज्ञासा, भ्रम और मानव मन की उलझनों को उत्तर-आधुनिक दृष्टि के परिप्रक्ष्य में प्रस्तुत किया है । बाजार एक तरफ सामान्य व्यक्ति को सपने दिखाता है, जिसको पूरा करना उसके लिए कठिन है, पर फिर भी वह उसे पूरा करने की दौड़ में लग जाता है । वहीं दूसरी तरफ बाज़ारवाद व्यक्ति को केवल एक वस्तु के रूप में देखता है, जो मात्र अपना उत्पाद बेचने से मतलब रखता है । मानवीय संवेदना किस प्रकार वस्तुवादी दृष्टि में परिवर्तित हो रही है उसका एक दस्तावेज बनकर यह उपन्यास पाठक के सामने आता है । हर छह महिने में नये शहर में नई नौकरी के लिए भटक रहे उपन्यास के चरित्र असंगतिपूर्ण संगति की उत्तर-आधुनिक स्थिति को ही प्रस्तुत करते हैं । गुरु का रहस्यमय जीवन उपन्यास के अन्य पात्रों में जिज्ञासा और भ्रम का मायाजाल बनाते हैं जिसमें विचारधाराएँ स्वाहा हो जाती है और महावृत्तांतों को करारी चोट मिलती है । ईर्ष्या मुक्त प्रेम में किसी तीसरे का सहज स्वीकार करते हुए प्रेम का जो रूप इस उपन्यास में प्रस्तुत किया गया है वह न केवल प्रेम की परंपरावादी विचारधाराओं से मुक्ति दिलाता है बल्कि नारीवादी विमर्श को भी प्रस्तुत करते हुए नारी की पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा भी करता है । उपन्यास के उत्तरार्ध में आदिवासी समूहों को प्रधानता देकर परिधि पर स्थित समूह को केन्द्र में लाया गया है जो उत्तर-आधुनिकता की प्रमुख पहचान है । के.वी की डायरियों का पाठ एक उत्तर-आधुनिक पाठ है जो के.वी. को उलझाकर रख देता है, क्योंकि अतियथार्थ संकेतो से पकडना पडता है । इस प्रकार यह उपन्यास उत्तर-आधुनिकतावाद को प्रस्तुत करता है ।



संदर्भ
1          एक ब्रेक के बाद, अलका सरावगी, पृष्ठ सं. 52
2          हितेन्द्र पटेल, http://hittisaba.blogspot.com/2009/08/blog-post.html
3          एक ब्रेक के बाद, अलका सरावगी, पृष्ठ सं. 73
4          वही, पृष्ठ सं. 30
5     वही, पृष्ठ सं. 65
6     वही, पृष्ठ सं. 33
7     वही, पृष्ठ सं. 61
8     वही, पृष्ठ सं. 169
9     वही, पृष्ठ सं. 172
10        वही, पृष्ठ सं. 149
11        वही, पृष्ठ सं. 119
12    वही, पृष्ठ सं. 68
13    वही, पृष्ठ सं. 93
14    वही, पृष्ठ सं. 88
15    वही, पृष्ठ सं. 109



गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

आधुनिकता बोध और उषा प्रियंवदा की कहानियाँ

            आधुनिकता का अभिप्राय है प्रत्येक विषयवस्तु में नयापन। यह नयापन विचारों के नयेपन का द्योतक है, जो निरंतर हमारे विचारों में गतिशील प्रक्रिया के रूप में अग्रसर होता है। आधुनिकता का आरंभ 18 वीं शती में औद्योगीकरण, पूँजीवादी व्यवस्था, अस्तित्ववादी दर्शन और दो-दो महायुद्धों के परिणाम स्वरूप पश्चिम में हुआ जिसका भारत में आगमन 20 वीं शताब्दी के आरंभ में हुआ ।
            ‘आधुनिकताबोध को समझने के लिए दो शब्दों आधुनिकताऔर बोधको समझना आवश्यक है। मानक हिन्दी कोश के अनुसार आधुनिकताशब्द का अर्थ है,थोड़े समय से प्रचलन में अथवा अस्तित्व में आया हुआ; जिस पर वर्तमान काल की धारणाओं की छाप पड़ी हुई है।1 बोधशब्द का अर्थ है, ज्ञान, जानकारी, भ्रम या अज्ञान का अभाव।2  इस प्रकार आधुनिकताबोध का अर्थ है वर्तमान का बोध, वर्तमान में अस्तित्व में आये ज्ञान और नवीन विचारों का बोध जो मनुष्य के भ्रमों को दूर करता है।
            आधुनिकता शब्द कालवाचक है। इसमें समय सापेक्षता का गुण है। प्रत्येक काल की आधुनिकता अपनी पूर्ववर्ती रूढियों का अतिक्रमण करती है, अतः वह परंपरा का विकास है। यही कारण है की आधुनिकता को एक निरंतर विकासशील प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है। रामधारी सिंह दिनकरका कथन है कि ‘‘जिसे हम आधुनिकता कहते हैं वह एक प्रक्रिया का नाम है। यह प्रक्रिया अंधविश्वासों से बाहर निकलने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया नैतिकता में उदारता बरतने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया बुद्धिवादी बनने की प्रक्रिया है। आधुनिकता वह है जो मनुष्य की ऊँचाई उसकी जाति या गोत्र नहीं, बल्कि उसके कर्म से नापता है। आधुनिक वह है जो मनुष्य-मनुष्य को समान समझे।’’ 3
            इस प्रकार आधुनिकता एक जीवन दृष्टि है जो अपने समय के समाज का युगानुरूप संस्कार करती है, पुरातन और शीथिल हो रहे बाह्य जीवन मूल्यों का विरोध करती है और युगसम्मत नवीन जीवन मूल्यों की स्थापना करती है। आधुनिकता विवेकयुक्त वैज्ञानिक दृष्टि से संबद्ध एक प्रश्नमूलक मानसिकता है जो प्रत्येक नवीन तथ्य, स्थिति अथवा मूल्य को तर्क की कसौटी पर कसकर ही स्वीकार करती है। वस्तुतः विज्ञान ने अनेक चमत्कार पूर्ण घटनाओं को जिसे मनुष्य पारलौकिक रहस्य से जोड़ता आया था, के पिछे छूपा यथार्थ का उदगाटन किया । औद्योगिक प्रगति ने मनुष्य को नगरों की ओर आकर्षित किया और कई सालों से संयुक्त परिवार में रहने वाले भारतीय व्तक्ति की स्थिति पारिवारिक बिखराव तक पहुँच गई। यंत्र की भाँति दौड़ते मनुष्य के जीवन से रागात्मकता समाप्तप्राय हो गई। परंपरागत मूल्यों और नैतिकता की अवधारणाएँ परिवर्तित हो गई और इससे उत्पन्न नई दृष्टि ने श्लीलता-अश्लीलता के प्रश्न को नया रूप दे दिया। अब सेक्स कोई आपराधिक प्रवृत्ति मात्र न रहकर मन की सहज आवश्यकता के रूप में प्रस्तुत होने लगी। आधुनिकता की इन्हीं परिणतियों के बीच जी रहा मनुष्य 
            हिन्दी की नई कहानी धारा को समृद्ध करने वाली लेखिकाओं में उषा प्रियंवदा का नाम सम्मान पूर्वक लिया जाता है। सन् 1950 ई के आस-पास लिखी जा रही ग्रामीण अँचल की कहानियों से प्रबुद्ध पाठक ऊब रहा था ऐसे समय में आधुनिक भावबोध से युक्त, अपने युग की प्रामाणिक अभिव्यक्ति करनेवाली, गंभीर एवं अर्थपूर्ण कहानियाँ लेकर उषा प्रियंवदा का नई कहानी के क्षेत्र में आगमन हुआ। पाश्चात्य आधुनिकतावादी दर्शन के प्रभाव से भारतीय महानगरीय जीवन में व्युत्पन्न आधुनिक प्रभाव और तत्त्कालीन युगबोध को उषा जी ने अपनी कहानियों का केन्द्र बिंदु बनाया। आधुनिकाता का सर्वाधिक प्रभाव नगर जीवन पर पड़ा, अतः उषा प्रियंवदा ने अपनी कहानियों को नगरीय जीवन से जोड़ा।
            आधुनिकता को तत्त्कालीन रूप में प्रस्तावित करने में मनोविश्लेशणवादी, उत्क्रान्तिवादी, मार्क्सवादी और अस्तित्ववादी विचारधाराओं ने मनुष्य के समक्ष अनेक प्रश्न खड़े कर दिये। वैज्ञानिक प्रगति के परिणाम स्वरूप मनुष्य बौद्धिक विश्लेषण करते हुए वस्तु सत्य पर बल देने लगा। मनुष्य ने यह तकनीक जब जीवन और समाज में लागू कर दी तब मनुष्य के जीवन की रागात्मकता और नैतिकता को गहरी चोट पहुँची। औद्यौगिक सभ्यता के विकास ने मनुष्य का मूल्य अर्थोपार्जन की परिपाटी पर आँका। इसमें असफल व्यक्ति निराशा, पीड़ा, टूटन और संत्रास का शिकार होने लगा। उषा प्रियंवदा का जिंदगी और गुलाब के फूल कहानी संग्रह इन्हीं आधुनिक भावभूमि का प्रामाणिक दस्तावेज बनकर पाठक के समक्ष प्रस्तुत हुआ है।
            ‘मोहबंध की अचला, आधुनिक नगरीय परिवेश में जीवन व्यतित कर रहे देवेन्द्र और नीलु जैसे चरित्रों से मिली निराशा के परिणाम स्वरूप उत्पन्न घुटन और कुंठा की शिकार है जो शादी कर लेने के बाद भी, अकेलेपन और अजनबीपन की समस्याग्रस्त जिंदगी जी रही है। विदेशी परिवेश और नगरों में जीने वाले मोहबंध के देवेन्द्र, नीलू और अचला जैसे चरित्रों में अस्थिरता के भी दर्शन होते है। न नीलू देवेन्द्र के प्रति प्रतिबद्ध रहती है और न देवेन्द्र अचला के प्रति। इन दोनों के प्रभाव से अचला का जीवन भी अस्थिर हो जाता है।
            नगरीय समाज में संबंधों की औपचारिकता के परिणाम स्वरूप उत्पन्न उदासी, अकेलापन और अजनबीपन का यथार्थ चित्रण छुट्टि का एक दिनकी माया के माध्यम से उषा जी ने किया है तो वहीं चाँद चलता रहाकी रोहिणी जीवन का अधिकांश समय महफिलों-पार्टियों में बीताने के बाद भी अपने जीवन में मरुस्थल-सा खालीपन महसूस करती है। इस जीवन में उसने क्या पाया तो पता चला कि यह लंबा अंतर मरुस्थल की तरह था।4
            आधुनिक बौद्धिकता और वैचारिकता के प्रभाव से मनुष्य ने अपनी परंपराओं, नैतिक-सामाजिक मूल्यों को नकार दिया, किंतु जीवन में मिली निष्फलता के समय इन्हीं मूल्यों के आलोक के अभाव में वह अनेक विसंगतियों और विडंबनाग्रस्त जीवन का भी अनुभव करता है। इस तत्त्कालीन युगबोध की अभिव्यक्ति जालेकहानी के द्वारा की गई है। उषा प्रियंवदा ने इस कहानी की नायिका को आधुनिक विचारोंवाली, भौतिकता को प्राधान्य देनेवाली, एक स्वतंत्र नारी के रूप में प्रस्तुत किया है। कहानी के आरंभ में पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त रहने की आकांक्षा करनेवाली कौमुदी पूरातन विचारों वाले राजेश्वर के साथ संपर्क में आती है और दोनों की शादी हो जाती है। फिर भी कौमुदी की भौतिक सुख-सुविधा का मोह नहीं छूट पाता है। परिणाम स्वरूप राजेश्वर स्वयं को मकड़ी के जाले में बंधा पाता है, जिसके तार दूर से बहुत सकुमार, बहुत आकर्षक लगते है।1 विलासिता की यह सब सामग्री राजशेखर को मानसिक शांति देने में असमर्थ है अतः उसके लिए यह सब व्यर्थ है। यूँ अतिशय बौद्धिकता और भौतिकता ने हमारे भावनात्मक संबंधों को भी रूक्ष बना दिया है।
            आधुनिक परिवेश में आर्थिक समृद्धि को महत्वपूर्ण स्थान मिला। मनुष्य का मूल्यांकन इसी मानदंड पर होने लगा। अतः मनुष्य येन-केन-प्रकरेण आर्थिक रूप से समृद्ध होने के लिए प्रयत्न करने लगा, जिसमें बाधा रूप नैतिकसामाजिक मूल्य हाशिये पर कर दिये गये; भावना, चेतना और संवेदना के स्तर में कमी आयी तथा तनाव और घुटन का व्याप बढता गया। आधुनिकता की इस परिणति का यथार्थ प्रस्तुतिकरण जिंदगी और गुलाब के फूल कहानी में हुआ है। परिवार का निर्वाह करने वाला सुबोध अपने आत्म-सम्मान पर चोट खाकर सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे देता है, किंतु बेकार होने के पश्चात उसकी स्थिति अपने ही परिवार में एक नौकर जैसी हो जाती है। सुबोध के यह शब्द तुम माँ-बेटी चाहती क्या ह? आज मैं बेकार हूँ तो मुझसे नौकरों-सा बरताव किया जाता है ! लानत है ऐसी जिंदगी पर।’’6 उसके दिल के उबाल और तनाव का प्रकाशन करते हैं। धनोपार्जन का केन्द्र बदलने से परिवार के निर्वाह में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आता किंतु सुबोध की पूरी ज़िंदगी बदल जाती है। उषा प्रियंवदा ने आधुनिक समय में अर्थ की प्रधानता के कारण जटिल बन गये मानव जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज इस कहानी में प्रस्तुत किया है।
            पैरम्बुलेटर’, ‘कच्चे धागेऔर वापसीजैसी कहानियों में उषा प्रियंवदा ने आर्थिक समस्या से उत्पन्न पारिवारिक बिखराव, सानवीय संवेदना की उदासिनता, रागात्मक संबंधों में आयी कड़वाहट एवं व्यक्ति मन में उत्पन्न लघुता, हताशा और घुटन को बड़ी सूक्ष्मता से उजागर किया है।
            स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात चली प्रगति की दौड़ में पारिवारिक-सामाजिक मूल्य व्यापक स्तर पर आहत हुए। प्रेम, स्नेह, विश्वास मित्रता जैसे मूल्यों के अभाव से जीवन में आयी विषमता की स्थिति का अनुभवजन्य  प्रस्तुतीकरण उषा प्रियंवदा ने किया है। इस दृष्टि से वापसी कहानी उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानी है। जिंदगी भर परिवार से दूर रहकर परिवार का निर्वाह करने के लिए रेल्वे की नौकरी करनेवाले गजाधर बाबू निवृत्त होकर वापस घर लौटते हैं, स्वयं को अपने ही घर में अकेला, अव्यवस्थित और मिसफिट पाते है। शहर में पढ़ी-लिखी उनकी संताने इस सीमा तक स्वतंत्र हो गई है कि अपनी पूर्व पीढ़ी को अवज्ञा और उपेक्षा के भाव से देखती हैं और अंततः स्थिति पारिवारिक बिखराव तक पहुँच जाती है। पारिवारिक मूल्यों की शिथीलता और दो पीढ़ियों के बीच आए वैचारिक परिवर्तन ने गजाधर बाबू को पुनः अन्य नौकरी खोजने के लिए मजबूर कर दिया। यह समस्या केवल गजाधर बाबू की ही नहीं है किंतु आधुनिक महानगरों में जी रहे प्रायः अधिकांश परिवारों की समस्या है, जिसका उषा प्रियंवदा ने गंभीरता से निरूपण किया है।
            आधुनिक विचारों के प्रभाव स्वरूप मनुष्य में जाग्रत अस्तित्व बोध ने नैतिकता, आध्यात्मिकता, पाप-पुण्य और भाग्य आदि में अनास्था व्यक्त की और इसके स्थान पर वैयक्तिक स्वच्छंदता, उपभोग की स्वतंत्रता, असामाजिकता, नास्तिकता और आचार-विरोध को प्राधान्य दिया। उषा प्रयंवदा ने अस्तित्व बोध की चेतना से युक्त ऐसे ही पात्रों का निर्माण किया है। यह पात्र पाप-पुण्य, भाग्य और कर्मफल में विश्वास न करनेवाले और वैचारिक स्वच्छंदता, उपभोग की स्वतंत्रता में आस्था रखने वाले आधुनिक मनुष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं।मोहबंधकी नीलू ऐसी ही नारी है जो उन्मुक्त भोग में विश्वास रखती है। कालेज में वह अपनी सखी अचला के मित्र देवेन्द्र से रिश्ता जोड़ती है, तो शादी के पश्चात पार्टियों में घूमती रहती है। अपनी सुख-सुविधाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए वह लखपति मिल-मालिक के बेटे से शादी कर लेती है। सामाजिक बंधनों को तोड़ती हुई वहकुछ लोगों से बहुत कुछ अनुमव भी करती है। उषा प्रियंवदा के यह पात्र परंपरागत मान्यताओं और बंधनों को तोड़कर बेहतर जीवन जी ने के लिए यत्नशील है।
            आधुनिक प्रभाव ने मनुष्य के यौन संबंधी दृष्टिकोण में भी व्यापक परिवर्तन ला दिया है। यौन नैतिकता अब सेक्स की स्वाभाविक माँग में परिवर्तित हो गई है क्योंकि आधुनिक युग की आत्मनिर्भर नारी प्रेम को किसी आदर्श या पवित्रता के बंधन में बंधकर नहीं देखती। उषा जी की कहानियों के प्रायः सभी नगरीय पात्र सामाजिक मर्यादाओं से विद्रोह करते हुए जिंदगी को अपनी संपूर्णता में, स्वच्छंद रूप से जीने को लालायित नज़र आते हैं। तारा, रोहिणी, नीलू ऐसे ही चरित्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। रोहीणी को उद्देश्य कर कहा गया निम्न कथन इसी ओर संकेत करता है- अभी किसी के साथ पंद्रह दिन शिमला रहकर आयी है, उसी ने दिये होंगे (कर्णफूल)।7 कंटीली छाँहके जगत बाबू बयालीस साल की उम्र में शादी करते है और पत्नी इन्द्रा के तीखे स्वभाव से तंग आकर कम्पाउन्डर की बीवी राधा से यौन संबंध भी स्थापित कर लेते है। इस कहानी में उषा जी ने राजी नामक चरित्र की दृष्टि से देखते हुए, इस सारे मसले को मनुष्य की यौन संबंधी एक अनिवार्य आवश्यकता से अधिक महत्व नहीं दिया। इस कहानी के द्वारा उषा प्रियंवदा ने दाम्पत्य संबंधों में विच्छेद और दाम्पत्य मूल्यों के ह्रास की आधुनिक परिणति को भी उठाया है।
              मनुष्य की स्वच्छंता और उन्मुक्त भोग की प्रवृत्ति ने उसके दाम्पत्य जीवन को गहराई से प्रभावित किया है। शादी के कुछ साल बाद ही अपने पति राजन से ऊब कर रात भर महफिलों में व्यस्त रहनेवाली नीलू और राजन के बीच एक अनकही दूरी आकार लेने लगती है। इसे महसूस करता हुआ राजन कहानी के अंत में नीलू की सहेली अचला की ओर आकर्षित होता है, वहीं अचला का अपना घर-संसार होने पर भी वह राजन के निकट आ जाती है, किंतु कहानी के अंत में वास्तविक परिस्थिति का बोध कराकर उषा जी ने अचला को राजन से अलग कर दिया है।
            मोहबंधकहानी नीलू और राजन के दाम्पत्य सम्बन्ध में आये अलगाव की अभिव्यक्ति करती है। जबकि अचला को दाम्पत्य जीवन के मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध दिखाकर उषा प्रियंवदा ने नैतिक मूल्यों में अपनी आस्था की अभिव्यक्ति की है।
            इस प्रकार उषा प्रियंवदा ने जिंदगी और गुलाब के फूलकहानी संग्रह में आधुनिकताबोध की विविध परिणतियों का अपनी समस्त सकारात्मकता और नकारात्मकता सहित प्रस्तुत किया है। इन कहानियों में प्राप्त होनेवाली घुटन, टूटन, निराशा, भौतिकता, पीढ़ीगत अंतराल, आत्मकेन्द्रीयता, अकेलापन, अजनबीपन, मृत्युबोध, मूल्य संकट और जीवन मूल्यों में आये बदलाव तथा अस्तित्व बोध आधुनिकता के ही विविध रूपों की अभिव्यक्ति है जिसका सफलतापूर्वक यथार्थ आलेखन उषा प्रियंवदा ने किया है। साथ ही मनुष्य के जीवन में आ रहे विघटनात्मक परिवर्तनों से उसे बचाने के लिए मूल्यों में अपनी आस्था प्रकट करना, उनकी वैचारिक परिपक्वता को ही प्रस्तुत करता है।   

संदर्भ

1. रामचंद्र वर्मा, मानक हिन्दी कोश, पृ. 174
2. श्याम सुंदर दास, हिन्दी शब्द सागर, पृ. 3574
3. रामधारी सिंह दिनकर, आधुनिक बोध, पृ. 24.
4. उषा प्रियंवदा, जिंदगी और गुलाब के फूल, पृ. 23
5. वही, पृ. 38
6. वही, पृ. 11
7. वही, पृ. 79

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

स्त्रीवादी चिंतन के परिप्रेक्ष्य में मोहन राकेश के नाटकों में पुरुष अहं का अध्ययन


तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन के संदर्भ में दो दृष्टिकोण प्रचलित हैं । एक परंपरागत दृष्टिकोण है, जिसमें दो भाषाओं में लिखे गए साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन को तुलनात्मक साहित्य माना गया है । बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन को लेकर एक दूसरे दृष्टिकोण को भी स्वीकारा गया । इसके अन्तर्गत एक ही भाषा के साहित्य में सांस्कृतिक अंतर को केन्द्र में रखकर साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन किया जा रहा है । दलित विमर्श, नारी विमर्श अथवा आदिवासी विमर्श की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि मुख्य धारा के साहित्य से भिन्न है । इस परिधि पर स्थित विमर्श के परिप्रेक्ष्य में मुख्यधारा अर्थात् केन्द्रवर्ती साहित्य को देखना भी तुलनात्मक साहित्य के अन्तर्गत समाविष्ट हो जाता है । यहाँ तुलनात्मक साहित्य की इस नई दिशा के अंतर्गत नारीवादी चिंतन के परिप्रेक्ष्य में मोहन राकेश के नाटकों को देखने का प्रयास किया गया है ।
पल-पल परिवर्तित हो रहे परिवेश में पारंपरिक मूल्य अपनी सापेक्षता से दूर हट रहे हैं जिसके स्थान पर नये परिवेश के अनुरूप नये मूल्यों का अन्वेषण तथा उनका नव-संस्कार करना भी रचनाकार का एक प्रमुख दायित्व बन जाता है । मोहन राकेश ने इस दायित्व को भली भाँति समझा और पारंपरागत नाटकों की लीक से हटकर न केवल आधुनिक संवेदनाओं को नाटक का विषय बनाया वरन् हिन्दी नाटक को एक अभूतपूर्व रंगमंच भी उपलब्ध कराया । आधुनिक भावबोध को केन्द्र में रखकर मोहन राकेश ने अपने नाटकों में भोगे हुए यथार्थ जीवन को काल्पनिक, ऐतिहासिक और आधुनिक पृष्ठभूमि पर आलेखित किया है ।
            स्त्रीवादी चिंतन के प्रारंभिक समय में स्त्रियों ने मत देने का अधिकार और कानूनी सुधारों के लिए संघर्ष किया । मार्क्सवाद से प्रभावित नारीवादी चिंतकों ने स्त्रियों के श्रम-पक्ष को उठाया । परिवार में किए गए श्रम की अनदेखी - चर्चा का विषय बनी और आगे चलकर समाजवादी नारीवाद में पारिवारिक श्रम पर चली बहस स्त्रियों के घरेलू श्रम के लिए वेतन की माँग करने लगी । परंपरागत मार्क्सवादी नारीवाद ने स्त्री की सामाजिक और सांस्कृतिक या यौन उत्पिड़न को महज आर्थिक शोषण का प्रतिबिम्ब माना था जिसके स्थान पर जैविकीय कारणों की प्रस्थापना करते हुए एक  यौन क्रांति की माँग रेडिकल नारीवादियों ने की । यहाँ तक आते-आते स्त्रीवादी चिंतन में एक बात स्पस्ट रूप से स्वीकृत हो गई कि स्त्रियों की इन दोनों स्थितियों में अंतर सामाजिक संरचना के कारण आया है । वह सामाजिक संरचना जो पुरुष-प्रधान है । पितृसत्तात्मकता नारी शोषण को असामान्य रूप से बढ़ा देती है । अतः पितृसत्ता का तीव्र विरोध हुआ । सामाजिक, पारिवारिक समानता के साथ-साथ स्वतंत्रता की जोरदार हिमायत होने लगी जो आगे चलकर पुरुषों से अलगाव और समलैंगिता की माँग में परिवर्तित हो गई ।
भारत में पिछले सौ वर्षों में नारी के प्रति दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन आया है । बीसवीं सदी के आरंभिक साहित्य में नारी की महत्ता स्वीकार करके, उससे सहानुभूति रखते हुए जीवन-संगिनी के रूप में देखा गया था, वह आगे चलकर पुरुष के समकक्ष खड़ी होने लगती हैं, उन्हें सामाजिक, आर्थिक समानता प्राप्त होती हैं और अंत में वे आक्रोश पूर्वक अपने अन्य अधिकारों की माँग करने हुए, पुरुष और परिवार के अत्याचारों का खुलकर विरोध करती हैं; न केवल समाज में वरन् राजनीति में   भी । वे लैंगिक विभेद को भी कड़ी चुनौती देते हुए नकार देती हैं ।
मोहन राकेश के तीनों नाटकों में स्त्रीवादी चिंतन विकसित होता हुआ दिखाई देता है । आषाढ का एक दिन(1958) में आदर्श भारतीय स्त्री का समर्पण है, जबकि लहरों के राजहंस(1963) में स्त्री के अहं-पोषित रूप को अभिव्यक्ति मिली है, वहीं आधे-अधूरे(1969) में आर्थिक रूप से सक्षम और आधुनिक स्वतंत्र नारी निकम्मे पुरुष से विरोध करती हुई अपने अधिकारों की प्राप्ति हेतु विद्रोह करती है; अपने अधूरेपन को भरने के लिए स्वतंत्र रूप से पूर्णता की खोज करती है ।
मोहन राकेश के नाटक जब प्रकाशित हो रहे थे तब हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श का वैसा रूप स्पष्ट नहीं था जैसा कि आज है । संविधान ने स्त्री-पुरुष समानता का अधिकार तो दे दिया था किंतु 1956 में हिंदु कोड़ बिल पारित होने के बाद ही स्त्रियों को वयस्क मताधिकार प्राप्त हुआ । कानूनी स्तर पर समानता मिलने पर भी सामाजिक स्तर पर नारी की स्थिति पिछड़ी हुई थी जिसका प्रतिबिंब साठ के दशक की चर्चित कथाकार उषादेवी मित्रा के उपन्यासों में देखा जा सकता है । 1960 के बाद कृष्णा सोबती, शिवानी, उषा प्रियंवदा जैसी कई नयी महिला कथाकार सामने आई जिन्होंने शिक्षित, नौकरीपेशा और प्रणय संबंध में बंधी स्त्रियों की समस्यओं को अपने कथा-साहित्य में प्रस्तुत किया । किंतु सत्तर के दशक तक नारी का वह स्वतंत्र रूप साहित्य में नहीं दिखाई देता, जो नारी-विमर्श के जोर पकड़ने के पश्चात के साहित्य में दिखाई देता है । इस परिप्रेक्ष्य में मोहन राकेश के नाटकों को देखा जा सकता है । इनके नाटकों में मुख्य रूप से स्त्री-पुरुष संबंध और पुरुष अहं की समस्या का निरूपण किया गया है । अतः मोहन राकेश के नाटकों में पुरुष अहं और यह अहं स्त्रियों की स्वतंत्रता, उनके अधिकारों में किस प्रकार की भूमिका निभाता है उसे स्त्रीवादी विमर्श के आईने में देखना रोचक विषय बन सकता है ।
मोहन राकेश के नाटक आषाढ़ का एक दिन’, ‘लहरों के राजहंस और आधे-अधूरे में स्त्री पुरुषों के संबंध का एक क्रमिक विकास होता हुआ दिखाई देता है जिसके साथ पुरुष और स्त्री के अहं का भी क्रमिका विकास होता है । पहले दो नाटक ऐतिहासिक परिवेश में आधुनिक भावबोध को रूपायित करते हुए स्त्री-पुरुष संबंध की अभिव्यक्ति करते है जबकि अंतिम नाटक मध्यवर्गीय समाज के स्त्री-पुरुष में हो रहे अहं की टकराहट की सीधी अभिव्यक्ति करता है ।
      आषाढ का एक दिन मोहन राकेश का पहला नाटक है । इसमें कालिदास, मल्लिका, प्रियंगुमंजरी और विलोम के सम्बन्ध और अहं को मोहन राकेश ने सूक्ष्म दृष्टि से प्रस्तुत किया है । नाटक के प्रारंभ में कालिदास एक स्थानीय कवि मात्र है । बाद में उसकी प्रसिद्धि चारों दिशाओं में फैलती है और उज्जयिनी की शासन-व्यवस्था कालिदास का स्वागत करते हुए राजकवि का सम्मान देने के लिए निमंत्रण भेजती है । कालिदास अपनी काव्य सर्जनात्मकता का अटूट स्रोत, अपनी मातृभूमि और प्रेयसी मल्लिका से दूर होना नहीं चाहता, किन्तु अंततः मल्लिका कालिदास को उज्जयिनी भेज ही देती है । उज्जयिनी में कालिदास राजकवि एवं राजपुरुष की प्रतिष्ठा और मातृगुप्त की संज्ञा से सम्मानित होता है । अंततः वह प्रियंगुमंजरी से विवाह के बंधन में भी बंध जाता है । फिर भी कालिदास प्रियंगु से वह आत्मीय संबंध स्थापित नहीं कर पाता जो मल्लिका से था । विपन्नता की स्थिति उसे उज्जयिनी की ओर ले गई थी तो संबंधों में आत्मीयता का अभाव उसे पुनः मल्लिका के पास ले आता है। विपन्नता की स्थिति में भी, पुरुष (कालिदास) का जो अहं, स्त्री (मल्लिका) के प्रणय में विलीन हो गया था वह राजसी सुविधाओं के बीच रहकर भी प्रियंगुमंजरी से टकराता है । यही संबंध नाटक के उत्तरार्ध में पुनः कालिदास को मल्लिका की ओर खींच लाता है । यह और बात है कि समय व परिस्थिति के साथ मल्लिका के जीवन में परिवर्तन आता है, वह विलोम का वरण करने के लिए मजबूर हो जाती है। मल्लिका विलोम के बच्चे की माता भी बनती है परंतु फिर भी उसके ह्रदय में तो कालिदास ही है। पति के रूप में कालिदास की प्राप्ति न हो पाने पर मल्लिका के अहं को जो चोट पहुँची थी, वह चोट कभी भी विलोम को मन से स्वीकार नहीं कर पाती।
नाटक में कालिदास का चरित्र आत्मसीमित है । नाटक के आरंभ में जख़्मी हिरन शावक को पुचकारते कालिदास का सरोकार अपनी भावनाओं से ही है । वह मल्लिका की यथार्थ बातों की अवहेलना करता है । यह क्रम नाटक के अंत तक चलता रहता है । कालिदास ग्रामप्रांतर आकर भी अभावग्रस्त जीवन यापन कर रही मल्लिका से नहीं मिलता, वहीं नाटक के अंत में लौटकर उसी के पास आता है किंतु विशुद्ध भाव से नहीं बल्कि अपने अहं की पूर्ति के लिए । मल्लिका को उसी रूप में प्राप्त करने की चाह, जिस रूप में वह उसे छोड़कर गया था, भी कालिदास की नितांत आत्मसीमितता की परिचायक है । पुरुष की यह अहं भावना संपूर्ण नाटक में स्त्री की भावना, स्वतंत्रता का हनन करती है, उसे मात्र एक उपयोग की वस्तु मानती है जिसका पुरुष (कालिदास) ने महत्तम लाभ उठाया है फिर वह मल्लिका के रूप में काव्य सर्जन का स्रोत हो या प्रियंगुमंजरी के रूप में विपन्नता से निजात दिलानेवाली राजदुहिता हो ।
इस प्रकार कालिदास और मल्लिका के व्यक्तित्व में अंतर है । कालिदास का अहं मल्लिका के प्रेम को अनेक वस्तु में से एक वस्तु के रूप में स्वीकार करता है जबकि मल्लिका के लिए कालिदास सर्वस्व है । वह बिना किसी शर्त के अपने स्त्रीवादी अहं को विगलित करके कालिदास को सर्वस्व समर्पित कर देती है । वे असाधारण हैं । उन्हें जीवन में असाधारण का ही साथ चाहिए था। सुना है राज-दुहिता बहुत विदुषी है ।1 इस त्याग और समर्पण से युक्त मल्लिका की भावनाओं, संवेदनाओं को न तो पितृसत्तात्मक समाज समझ सकता है और न ही कालिदास । मल्लिका प्रेम संबंध को प्रामाणिक रूप से निभाती है और इसीलिए वह हार कर भी जीत जाती है, सह्रदय पाठकगण की सहानुभूति पाती है जबकि कालिदास बहुत कुछ पाकर भी सब कुछ खो देता है ।
मल्लिका के जर्जर घर का परिसंस्कार के प्रसंग में प्रियंगु में जिस दर्प को भरने का राकेश ने प्रयास किया है उसमें सत्ताप्राप्त, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नारी की झांकी की मिलती है, दूसरी तरफ आर्थिक रूप से पराधीन नारी का वह रूप मल्लिका में दिखाई देता है जो किसी की कही सुनी अपमानित होकर भी सुन लेती  है ।
            स्त्री और पुरुष के अहं की टकराहट से जो विशृंखलता आषाढ का एक दिन में पुरुष (कालिदास) और स्त्री (मल्लिका) के संबंध में आई थी उसका अगला चरण लहरों के राजहंस (नंद और सुंदरी के संबंध) में दिखाई देता है । इस नाटक में बुद्ध और यशोधरा प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित नहीं हैं किंतु उनकी, उनके विचारों की छाया संपूर्ण नाटक में व्याप्त  है । श्यामांग और अलका एक दूसरे को समर्पित है जिसमें अहं की टकराहट नहीं के बराबर है । आधुनिक भावबोध की अभिव्यंजना करने वाला नंद एक दुविधाग्रस्त मानसिकता वाला चरित्र है जबकि सुंदरी रूप-सौंदर्य के दर्प की वाहक है । यह संपूर्ण नाटक भोग बनाम निवृत्ति के द्वंद्व की अभिव्यक्ति करता है । सुंदरी भोगात्मकता पर बल देती है, भौतिक जगत से पूर्णः प्रतिवाद सुंदरी के अहं की भावना है, जबकि बुद्ध और यशोधरा निवृत्ति के मार्ग पर चल पड़े हैं । नंद एक साथ दोनों का वरण करना चाहता है, इसलिए नंद को दोनों तरफ से असंतुष्टि का अनुभव होता है ।
पति-पत्नी का जैसा पारस्परिक अंतर्विरोध नंद और सुंदरी के माध्यम से उभरकर आया है वैसा अंतर्विरोध कालिदास और मल्लिका में नहीं दिखाई देता क्योंकि मल्लिका कालिदास के प्रति पूर्णतः समर्पित है, जबकि सौंदर्य की मूर्ति सुंदरी अभिमानी, शंकालु और अहं भावना से परिचालित  है । नाटक के अंत में नंद का अहं जब सुंदरी के अहं से बलवती हो जाता है तब सुंदरी का सौंदर्य उसे रोक नहीं पाता । बुद्ध के रास्ते पर चलते हुए वह केश-मुंडन करवा देता है । पुरुष की अहंवादी जीवनदृष्टि सुंदरी की जीवनदृष्टि, सुंदरी के इस विश्वास -मैं ने उन्हें भेजा था तो एक विश्वास के साथ भेजा था को छिन्न-विच्छिन्न कर देती है ।
पुरुष के लिए नारी अपनी अनेक आवश्यकताओं में से एक आवश्यकता है । इस आवश्यकता का उपभोग वह करता रहता है । किंतु हमेशा सुंदरी के इशारों पर चलना भी उसे मंजूर नहीं है । वह बुद्ध और सुंदरी दोनों को एक साथ अपने में बना रखने की निरंतर कोशिश करता है । इस प्रकार नंद अपने अहं को पोषित करने के लिए ही सुंदरी के रूप-पाश में बंधता है, वहीं उसे छोडकर बुद्ध के पास भी इसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु जाता है । पर अब किसी भी रूप में नंद अपने को झुठलाकर नहीं जी सकता ।2 वह कहता है मैं तुम्हारा या किसी का विश्वास औढकर नहीं जी सकता, नहीं जीना चाहता ।3 उसके स्वतंत्र अस्तित्व की तलाश नाटक के अंत तक बनी रहती है ।
सुंदरी को अपने रूपाकर्षण पर पूर्ण विश्वास है और अभिमान भी । नारी का आकर्षण पुरुष को पुरुष बनता है तो उसका अपकर्षण उसे गौतम बुद्ध बना देता है ।..... सोचकर खेद होता है कि इतने वर्ष पीड़ा सहने के बाद भी देवी यशोधरा अपनी पीड़ा का मान न रख सकी ।4 सुंदरी के इस कथन में आधुनिक नारीवादी चिंतन का संकेत है । वह प्राचीन भारतीय आदर्श नारी की तरह अपने पति के पदचिह्नों का अनुसरण करने के स्थान पर पति को अपने रास्ते पर ले आने की निरंतर कोशिश करती है । सतही तौर पर सुंदरी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की हिमायती बनकर नाटक में उभरती है । किंतु सुंदर, पृथ्वी के रूप में, पुरुष और उसकी चेतना को अपने तक बाँधे रखने की5 उसकी चाह भिक्षु-वेशधारी नंद को देखकर अंततः उसके अहं, विश्वास और दर्प को चूर-चूर कर देती है । यहाँ पर यह कहना अनुचित नहीं होगा की मूलतः इस संपूर्ण नाटक में मोहन राकेश ने सुंदरी को पुरुष के प्रगति-मार्ग की बाधा के रूप में देखा है जो राकेश की पुरुषवादी दृष्टि की ही अभिव्यक्ति है ।
 ‘आधे-अधूरे में मोहन राकेश ने मध्यवर्गीय परिवार की मनोस्थितियों का विश्लेषण मनोवैज्ञानिक धरातल पर किया है । आधे-अधूरे के सभी चरित्र आधे अधूरे हैं । आधुनिक परिवेश में जी रहे यह पात्र कुंठा और संत्रास के शिकार हैं। महेन्द्रनाथ और सावित्री पति-पत्नी के अटूट रिश्ते में बंधे हैं, फिर भी अलगाव की विशद छाया उनके संबंध पर निरंतर बनी रहती है । पूर्णता की खोज में दौड़ रही स्त्री (सावित्री) अधूरे पुरुष (महेन्द्रनाथ) को स्वीकार नहीं कर पाती, जबकि अहं पर निरंतर चोटे खा रहा महेन्द्रनाथ सावित्री से प्रेम करते हुए भी मानसिक तंगदिली में जी रहा है । यही तनाव, संशय और कुंठा इन दोनों की नियति बन गई है । सावित्री महेन्द्रनाथ को एक निठल्ला, बेकार और पराधीन पुरुष मानती है, जिसकी अपनी कोई अहमियत या माद्दा नहीं है । इसीलिए वह इसकी खोज अन्य स्थानों पर, अन्य पुरुषों से करती रहती है । जबकि महेन्द्रनाथ भी स्वयं को बार-बार घिसने वाला रबर का एक टुकड़ा समझता है जिसकी परिवार के सदस्यों की दृष्टि में कोई अहमियत नहीं है । अपने अहं पर बार-बार कुठाराघात होने पर वह सावित्री को मारता-पीटता है जिससे परिवार में घृणा, उपेक्षा और तंगदिली की रुग्ण छाया बनी रहती है ।
आधुनिक दौर के पितृसत्तात्मक परिवेश में घर का आर्थिक बोझा उठाती हुई सावित्री जैसी भारतीय स्त्री की स्थिति का यथार्थ निरूपण मोहन राकेश ने इस नाटक में किया है । कामचोर पति, दिनभर मैगजीन की कटिंग्स इकट्ठा करनेवाला निठल्ला लड़का, स्वयं के प्रेमी के साथ भाग जानेवाली स्वच्छंद बिन्नी और जिद्दी छोटी लड़की किन्नी से बना परिवार चलाते-चलाते तनाव और घुटन से तंग आ चुकी सावित्री का अहं उसे बार-बार मुक्त होने को प्रेरित करता रहता है _ मेरे पास बहुत साल नहीं है जीने को । पर जितने हैं, उन्हें मैं इसी तरह निभाते हुए नहीं काटूंगी । मेरे करने से जो कुछ हो सकता था इस घर का, हो चुका, आज तक । मेरी तरफ से अब अंत है उसका, निश्चित अंत ।6 एक बेहतर पूर्ण जीवन की तलाश में वह सिंघानिया, जुनेजा, मनोज, जगमोहन के पास जाती है पर अंततः उसे पूर्णता कहीं नहीं मिलती । सभी पुरुष एक से है । सबके सब...... एक से । अलग-अलग मुखौटे पर चेहरा ?.... चेहरा सबका एक ही ।7 जुनेजा के साथ चल निकली स्त्री परिस्थितिवश घर में वापस आने के लिए मजबूर हो जाती है जबकि पुरुष अपनी दब्बू प्रकृति के कारण । पूरे नाटक में सावित्री को पाठक की सहानुभूती का पात्र बनाने वाले मोहन राकेश अंततः उसे एक ऐसी पारंपरिक सामाजिक दृष्टि से देखते है जो स्त्री के लिए घर वापस आने के अलावा कोई और विकल्प नहीं छोड़ती । यहाँ कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि नारी के अवैध संबंधों को पुरुष के विवाहेत्तर संबंधों की तरह स्वीकृति मिलनी चाहिए, पर बात यह है कि पीड़ा की शिकार हर हालत में सावित्री जैसी स्त्री ही होती है ।
सावित्री को अपनी अपूर्ण जिंदगी या अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए एक से दूसरे पुरुष तक यात्रा करते हुए दिखाकर मोहन राकेश ने स्त्री की स्वतंत्रता को आवश्यक माना है जो नारीवादी चिंतन का सकारात्मक पक्ष है । किंतु दूसरी तरफ मोहन राकेश जिस समय यह नाटक लिख रहे थे अर्थात बीसवीं सदी के सातवें दशक में, तब स्त्रीवादी चिंतन का उतना प्रस्तुतिकरण उस दृष्टि से नहीं होता था जो आज की रचनाओं में जिस दृष्टि से होता है । यही कारण है कि मोहन राकेंश सावित्री को जुनेजा के साथ चल निकलने का निर्णय लेते हुए तो दिखाते है परंतु अंततः उसे अपने ही निर्णय के अनुसार मुक्त होते हुए नहीं दिखा पाते । यहाँ पर सातवे दशक के भारत की पुरुषवादी दृष्टि को देखा जा सकता है जो स्त्री को स्वतंत्र करते हुए भी बंधनों की सीमाओं में जकड़े रखती है ।
इतनी चर्चा के पश्चात मोहन राकेश के तीनों नाटकों को में स्त्री के सशक्त रूप को विकसित होता हुआ देखा जा सकता है । कालिदास एक बड़ा कवि है जिसे सभी सुविधाएँ प्राप्त होना आवश्यक है । अतः यहाँ पर मल्लिका अनेक लड़कियों की तरह एक सामान्य लड़की है जो पूर्णतः कालिदास को समर्पित है । लहरों के राजहंस में नंद का व्यक्तित्व कालिदास से ज्यादा दुविधाग्रस्त है । इसके सभी निर्णय सुंदरी के निर्णय से परिचालित होते है । यहाँ पर सुंदरी मल्लिका की तरह पुरुष के प्रति पूर्ण समर्पित न होकर अहं और दर्प की वाहक है । वह अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत व्यक्तित्व वाली नारी भी है । भले ही बाद में सुंदरी के विश्वास की हार होती है किंतु इस नाटक में वह अधिकारों के प्रति सजग नारी की प्रतिनिधि बनकर पाठक के सामने प्रस्तुत हुई है । आधे-अधूरे का नायक महेन्द्रनाथ एक निकम्मा पुरुष है, अपने जीवन के अधुरेपन को भरने के लिए सावित्री से शादी करता है, परंतु नारीवादी अधिकारों की स्वतंत्रता पूर्वक माँग करनेवाली सावित्री उससे चार कदम आगे निकल जाती है । अपने अधिकारों के लिए लड़ रही सावित्री में नारीवादी चिंतन को देखा जा सकता है । जो स्त्री को किसी भी प्रकार के बंधनों से मुक्ति दिलाने की हिमायत करता है । पूर्णता की खोज करने के लिए वह I II III IV पुरुषों को आजमाती है पर हर कहीं निराश होती है । मोहन राकेश ने सावित्री के पास घर लौटने के अलावा और कोई विकल्प नहीं छोड़ा । यहाँ पर स्त्री की बंधनों में बंधी पराधीन स्थिति का प्रकाशन होता है । दूसरी तरफ कालिदास और नंद की ही तरह महेन्द्रनाथ भी स्त्री के निर्णय और आदेशों से परिचालित है । पुरुष अहं की टकराहट से स्त्री चरित्र तनाव और यातना के शिकार होते है पर अंततः पुरुष (महेन्द्रनाथ) अपने ही अहं से स्वयं टकराता है, लड़ता है, लड़खडाता है और अंततः घर वापस आने को विवश हो जाता  है ।
नाटक के पात्रों से पाठक की सहानुभूति को केन्द्र में रखकर इन नाटकों का मूल्यांकन करे तो पहला और तीसरा नाटक नारी चिंतन के परिप्रेक्ष्य में सबल है जबकि दूसरा नाटक कमजोर है । मल्लिका अनेक दुःख और विपत्ति सहकर भी कालिदास के प्रति पूर्ण समर्पित है और इसीलिए पाठकों की सहानभूति मल्लिका के साथ है । किंतु लहरों के राजहंस में नाट्यकार ने जिस महत उद्देश्य की पूर्ति को कथा का आधार बनाकर नाटक का सर्जन किया है, वह नारी का बाधक रूप ही प्रस्तुत कर रहा है । इसी कारण पाठकों की सहानुभूति जो पहले नाटक में मल्लिका के साथ थी वह दूसरे नाटक में सुंदरी के साथ न रहकर नंद के साथ हो जाती है । आधे-अधूरे में अपने परिवार का निर्वाह कर रही सावित्री को निश्चित रूप से पाठकों की सहानुभूति प्राप्त है । अनेक पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक समस्याओं से जूझनेवाली सावित्री निरंतर संघर्ष करती है । वह भले ही पूर्णता की खोज में दर-दर भटकती है फिर भी पाठक की सहानुभूति उसे ही मिलती है । इस प्रकार पहले और तीसरे नाटक में सह्रदय पाठक वर्ग स्त्री चरित्रों के साथ ही है ।
हिन्दी साहित्य में मोहन राकेश के नाटकों को विविध दृष्टियों से देखा जाता रहा है । यहाँ उन्हें नवीन दृष्टि से नारीवादी चिंतन के परिप्रेक्ष्य में देखा गया है । मोहन राकेश के नाटकों की  इतनी चर्चा के पश्चात यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने अपने नाटकों में स्त्री को परंपरागत पितृसत्तात्मक समाज की दृष्टि से देखने के अतिरिक्त नारी का एक सशक्त रूप भी प्रस्तुत करने का प्रयास किया है जो पुरुष के प्रति समर्पण से, लेकर स्त्री अधिकारों के स्वतंत्रतापूर्वक माँग करती हुई नारी के रूप में विकसित होता है । भले ही उनकी पुरुषवादी दृष्टि नाटक के अंत में स्त्री के लिए कोई सशक्त विकल्प नहीं रख पाई, किंतु अपने परिवेश की सीमाओं में रहते हुए भी उन्होंने नारी के जिस स्वतंत्र रूप को प्रस्तुत किया है वह सराहनीय है । आधुनिक समय में स्त्रियों की समस्याओं को प्रस्तुत करनेवाले, उनसे सह्यदयता का परिचय देनेवाले राकेश प्रत्यक्ष रूप से भले ही न हो, परंतु परोक्ष रूप से तो, उन्हें स्त्री के पक्षधर जरूर कहे जा सकते हैं ।
संदर्भ
1          आषाढ का एक दिन, मोहन राकेश, पृष्ठ सं. 52
2          लहरों के राजहंस, मोहन राकेश, पृष्ठ सं. 188
3          वही, पृष्ठ सं. 107
4          वही, पृष्ठ सं. 45-46
5     वही, पृष्ठ सं. 19
6     आधे-अधूरे, मोहन राकेश, पृष्ठ सं. 67
7     वही, पृष्ठ सं. 90