आधुनिकता का अभिप्राय है प्रत्येक विषयवस्तु में नयापन। यह नयापन विचारों के नयेपन का द्योतक है, जो निरंतर हमारे विचारों में गतिशील प्रक्रिया के रूप में अग्रसर होता है। आधुनिकता का आरंभ 18 वीं शती में औद्योगीकरण, पूँजीवादी व्यवस्था, अस्तित्ववादी दर्शन और दो-दो महायुद्धों के परिणाम स्वरूप पश्चिम में हुआ जिसका भारत में आगमन 20 वीं शताब्दी के आरंभ में हुआ ।
‘आधुनिकताबोध’ को समझने के लिए दो शब्दों ‘आधुनिकता’ और ‘बोध’ को समझना आवश्यक है। मानक हिन्दी कोश के अनुसार ‘आधुनिकता’ शब्द का अर्थ है, ‘थोड़े समय से प्रचलन में अथवा अस्तित्व में आया हुआ; जिस पर वर्तमान काल की धारणाओं की छाप पड़ी हुई है।’1 ‘बोध’ शब्द का अर्थ है, ‘ज्ञान, जानकारी, भ्रम या अज्ञान का अभाव।’2 इस प्रकार ‘आधुनिकताबोध’ का अर्थ है वर्तमान का बोध, वर्तमान में अस्तित्व में आये ज्ञान और नवीन विचारों का बोध जो मनुष्य के भ्रमों को दूर करता है।
आधुनिकता शब्द कालवाचक है। इसमें समय सापेक्षता का गुण है। प्रत्येक काल की आधुनिकता अपनी पूर्ववर्ती रूढियों का अतिक्रमण करती है, अतः वह परंपरा का विकास है। यही कारण है की आधुनिकता को एक निरंतर विकासशील प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का कथन है कि ‘‘जिसे हम आधुनिकता कहते हैं वह एक प्रक्रिया का नाम है। यह प्रक्रिया अंधविश्वासों से बाहर निकलने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया नैतिकता में उदारता बरतने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया बुद्धिवादी बनने की प्रक्रिया है। आधुनिकता वह है जो मनुष्य की ऊँचाई उसकी जाति या गोत्र नहीं, बल्कि उसके कर्म से नापता है। आधुनिक वह है जो मनुष्य-मनुष्य को समान समझे।’’ 3
इस प्रकार आधुनिकता एक जीवन दृष्टि है जो अपने समय के समाज का युगानुरूप संस्कार करती है, पुरातन और शीथिल हो रहे बाह्य जीवन मूल्यों का विरोध करती है और युगसम्मत नवीन जीवन मूल्यों की स्थापना करती है। आधुनिकता विवेकयुक्त वैज्ञानिक दृष्टि से संबद्ध एक प्रश्नमूलक मानसिकता है जो प्रत्येक नवीन तथ्य, स्थिति अथवा मूल्य को तर्क की कसौटी पर कसकर ही स्वीकार करती है। वस्तुतः विज्ञान ने अनेक चमत्कार पूर्ण घटनाओं को जिसे मनुष्य पारलौकिक रहस्य से जोड़ता आया था, के पिछे छूपा यथार्थ का उदगाटन किया । औद्योगिक प्रगति ने मनुष्य को नगरों की ओर आकर्षित किया और कई सालों से संयुक्त परिवार में रहने वाले भारतीय व्तक्ति की स्थिति पारिवारिक बिखराव तक पहुँच गई। यंत्र की भाँति दौड़ते मनुष्य के जीवन से रागात्मकता समाप्तप्राय हो गई। परंपरागत मूल्यों और नैतिकता की अवधारणाएँ परिवर्तित हो गई और इससे उत्पन्न नई दृष्टि ने श्लीलता-अश्लीलता के प्रश्न को नया रूप दे दिया। अब सेक्स कोई आपराधिक प्रवृत्ति मात्र न रहकर मन की सहज आवश्यकता के रूप में प्रस्तुत होने लगी। आधुनिकता की इन्हीं परिणतियों के बीच जी रहा मनुष्य
हिन्दी की नई कहानी धारा को समृद्ध करने वाली लेखिकाओं में उषा प्रियंवदा का नाम सम्मान पूर्वक लिया जाता है। सन् 1950 ई के आस-पास लिखी जा रही ग्रामीण अँचल की कहानियों से प्रबुद्ध पाठक ऊब रहा था ऐसे समय में आधुनिक भावबोध से युक्त, अपने युग की प्रामाणिक अभिव्यक्ति करनेवाली, गंभीर एवं अर्थपूर्ण कहानियाँ लेकर उषा प्रियंवदा का नई कहानी के क्षेत्र में आगमन हुआ। पाश्चात्य आधुनिकतावादी दर्शन के प्रभाव से भारतीय महानगरीय जीवन में व्युत्पन्न आधुनिक प्रभाव और तत्त्कालीन युगबोध को उषा जी ने अपनी कहानियों का केन्द्र बिंदु बनाया। आधुनिकाता का सर्वाधिक प्रभाव नगर जीवन पर पड़ा, अतः उषा प्रियंवदा ने अपनी कहानियों को नगरीय जीवन से जोड़ा।
आधुनिकता को तत्त्कालीन रूप में प्रस्तावित करने में मनोविश्लेशणवादी, उत्क्रान्तिवादी, मार्क्सवादी और अस्तित्ववादी विचारधाराओं ने मनुष्य के समक्ष अनेक प्रश्न खड़े कर दिये। वैज्ञानिक प्रगति के परिणाम स्वरूप मनुष्य बौद्धिक विश्लेषण करते हुए वस्तु सत्य पर बल देने लगा। मनुष्य ने यह तकनीक जब जीवन और समाज में लागू कर दी तब मनुष्य के जीवन की रागात्मकता और नैतिकता को गहरी चोट पहुँची। औद्यौगिक सभ्यता के विकास ने मनुष्य का मूल्य अर्थोपार्जन की परिपाटी पर आँका। इसमें असफल व्यक्ति निराशा, पीड़ा, टूटन और संत्रास का शिकार होने लगा। उषा प्रियंवदा का ‘जिंदगी और गुलाब के फूल’ कहानी संग्रह इन्हीं आधुनिक भावभूमि का प्रामाणिक दस्तावेज बनकर पाठक के समक्ष प्रस्तुत हुआ है।
‘मोहबंध’ की अचला, आधुनिक नगरीय परिवेश में जीवन व्यतित कर रहे देवेन्द्र और नीलु जैसे चरित्रों से मिली निराशा के परिणाम स्वरूप उत्पन्न घुटन और कुंठा की शिकार है जो शादी कर लेने के बाद भी, अकेलेपन और अजनबीपन की समस्याग्रस्त जिंदगी जी रही है। विदेशी परिवेश और नगरों में जीने वाले ‘मोहबंध’ के देवेन्द्र, नीलू और अचला जैसे चरित्रों में अस्थिरता के भी दर्शन होते है। न नीलू देवेन्द्र के प्रति प्रतिबद्ध रहती है और न देवेन्द्र अचला के प्रति। इन दोनों के प्रभाव से अचला का जीवन भी अस्थिर हो जाता है।
नगरीय समाज में संबंधों की औपचारिकता के परिणाम स्वरूप उत्पन्न उदासी, अकेलापन और अजनबीपन का यथार्थ चित्रण ‘छुट्टि का एक दिन’ की माया के माध्यम से उषा जी ने किया है तो वहीं ‘चाँद चलता रहा’ की रोहिणी जीवन का अधिकांश समय महफिलों-पार्टियों में बीताने के बाद भी अपने जीवन में मरुस्थल-सा खालीपन महसूस करती है। “इस जीवन में उसने क्या पाया तो पता चला कि यह लंबा अंतर मरुस्थल की तरह था।”4
आधुनिक बौद्धिकता और वैचारिकता के प्रभाव से मनुष्य ने अपनी परंपराओं, नैतिक-सामाजिक मूल्यों को नकार दिया, किंतु जीवन में मिली निष्फलता के समय इन्हीं मूल्यों के आलोक के अभाव में वह अनेक विसंगतियों और विडंबनाग्रस्त जीवन का भी अनुभव करता है। इस तत्त्कालीन युगबोध की अभिव्यक्ति ‘जाले’ कहानी के द्वारा की गई है। उषा प्रियंवदा ने इस कहानी की नायिका को आधुनिक विचारोंवाली, भौतिकता को प्राधान्य देनेवाली, एक स्वतंत्र नारी के रूप में प्रस्तुत किया है। कहानी के आरंभ में पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त रहने की आकांक्षा करनेवाली कौमुदी पूरातन विचारों वाले राजेश्वर के साथ संपर्क में आती है और दोनों की शादी हो जाती है। फिर भी कौमुदी की भौतिक सुख-सुविधा का मोह नहीं छूट पाता है। परिणाम स्वरूप राजेश्वर स्वयं को मकड़ी के जाले में बंधा पाता है, जिसके तार दूर से बहुत सकुमार, बहुत आकर्षक लगते है।1 विलासिता की यह सब सामग्री राजशेखर को मानसिक शांति देने में असमर्थ है अतः उसके लिए यह सब व्यर्थ है। यूँ अतिशय बौद्धिकता और भौतिकता ने हमारे भावनात्मक संबंधों को भी रूक्ष बना दिया है।
आधुनिक परिवेश में आर्थिक समृद्धि को महत्वपूर्ण स्थान मिला। मनुष्य का मूल्यांकन इसी मानदंड पर होने लगा। अतः मनुष्य येन-केन-प्रकरेण आर्थिक रूप से समृद्ध होने के लिए प्रयत्न करने लगा, जिसमें बाधा रूप नैतिक—सामाजिक मूल्य हाशिये पर कर दिये गये; भावना, चेतना और संवेदना के स्तर में कमी आयी तथा तनाव और घुटन का व्याप बढता गया। आधुनिकता की इस परिणति का यथार्थ प्रस्तुतिकरण ‘जिंदगी और गुलाब के फूल’ कहानी में हुआ है। परिवार का निर्वाह करने वाला सुबोध अपने आत्म-सम्मान पर चोट खाकर सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे देता है, किंतु बेकार होने के पश्चात उसकी स्थिति अपने ही परिवार में एक नौकर जैसी हो जाती है। सुबोध के यह शब्द “तुम माँ-बेटी चाहती क्या है? आज मैं बेकार हूँ तो मुझसे नौकरों-सा बरताव किया जाता है ! लानत है ऐसी जिंदगी पर।’’6 उसके दिल के उबाल और तनाव का प्रकाशन करते हैं। धनोपार्जन का केन्द्र बदलने से परिवार के निर्वाह में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आता किंतु सुबोध की पूरी ज़िंदगी बदल जाती है। उषा प्रियंवदा ने आधुनिक समय में अर्थ की प्रधानता के कारण जटिल बन गये मानव जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज इस कहानी में प्रस्तुत किया है।
‘पैरम्बुलेटर’, ‘कच्चे धागे’ और ‘वापसी’ जैसी कहानियों में उषा प्रियंवदा ने आर्थिक समस्या से उत्पन्न पारिवारिक बिखराव, सानवीय संवेदना की उदासिनता, रागात्मक संबंधों में आयी कड़वाहट एवं व्यक्ति मन में उत्पन्न लघुता, हताशा और घुटन को बड़ी सूक्ष्मता से उजागर किया है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात चली प्रगति की दौड़ में पारिवारिक-सामाजिक मूल्य व्यापक स्तर पर आहत हुए। प्रेम, स्नेह, विश्वास मित्रता जैसे मूल्यों के अभाव से जीवन में आयी विषमता की स्थिति का अनुभवजन्य प्रस्तुतीकरण उषा प्रियंवदा ने किया है। इस दृष्टि से ‘वापसी’ कहानी उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानी है। जिंदगी भर परिवार से दूर रहकर परिवार का निर्वाह करने के लिए रेल्वे की नौकरी करनेवाले गजाधर बाबू निवृत्त होकर वापस घर लौटते हैं, स्वयं को अपने ही घर में अकेला, अव्यवस्थित और मिसफिट पाते है। शहर में पढ़ी-लिखी उनकी संताने इस सीमा तक स्वतंत्र हो गई है कि अपनी पूर्व पीढ़ी को अवज्ञा और उपेक्षा के भाव से देखती हैं और अंततः स्थिति पारिवारिक बिखराव तक पहुँच जाती है। पारिवारिक मूल्यों की शिथीलता और दो पीढ़ियों के बीच आए वैचारिक परिवर्तन ने गजाधर बाबू को पुनः अन्य नौकरी खोजने के लिए मजबूर कर दिया। यह समस्या केवल गजाधर बाबू की ही नहीं है किंतु आधुनिक महानगरों में जी रहे प्रायः अधिकांश परिवारों की समस्या है, जिसका उषा प्रियंवदा ने गंभीरता से निरूपण किया है।
आधुनिक विचारों के प्रभाव स्वरूप मनुष्य में जाग्रत अस्तित्व बोध ने नैतिकता, आध्यात्मिकता, पाप-पुण्य और भाग्य आदि में अनास्था व्यक्त की और इसके स्थान पर वैयक्तिक स्वच्छंदता, उपभोग की स्वतंत्रता, असामाजिकता, नास्तिकता और आचार-विरोध को प्राधान्य दिया। उषा प्रयंवदा ने अस्तित्व बोध की चेतना से युक्त ऐसे ही पात्रों का निर्माण किया है। यह पात्र पाप-पुण्य, भाग्य और कर्मफल में विश्वास न करनेवाले और वैचारिक स्वच्छंदता, उपभोग की स्वतंत्रता में आस्था रखने वाले आधुनिक मनुष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। ‘मोहबंध’ की नीलू ऐसी ही नारी है जो उन्मुक्त भोग में विश्वास रखती है। कालेज में वह अपनी सखी अचला के मित्र देवेन्द्र से रिश्ता जोड़ती है, तो शादी के पश्चात पार्टियों में घूमती रहती है। अपनी सुख-सुविधाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए वह लखपति मिल-मालिक के बेटे से शादी कर लेती है। सामाजिक बंधनों को तोड़ती हुई वह ‘कुछ लोगों से बहुत कुछ अनुमव’ भी करती है। उषा प्रियंवदा के यह पात्र परंपरागत मान्यताओं और बंधनों को तोड़कर बेहतर जीवन जी ने के लिए यत्नशील है।
आधुनिक प्रभाव ने मनुष्य के यौन संबंधी दृष्टिकोण में भी व्यापक परिवर्तन ला दिया है। यौन नैतिकता अब सेक्स की स्वाभाविक माँग में परिवर्तित हो गई है क्योंकि आधुनिक युग की आत्मनिर्भर नारी प्रेम को किसी आदर्श या पवित्रता के बंधन में बंधकर नहीं देखती। उषा जी की कहानियों के प्रायः सभी नगरीय पात्र सामाजिक मर्यादाओं से विद्रोह करते हुए जिंदगी को अपनी संपूर्णता में, स्वच्छंद रूप से जीने को लालायित नज़र आते हैं। तारा, रोहिणी, नीलू ऐसे ही चरित्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। रोहीणी को उद्देश्य कर कहा गया निम्न कथन इसी ओर संकेत करता है- “अभी किसी के साथ पंद्रह दिन शिमला रहकर आयी है, उसी ने दिये होंगे (कर्णफूल)।”7 ‘कंटीली छाँह’ के जगत बाबू बयालीस साल की उम्र में शादी करते है और पत्नी इन्द्रा के तीखे स्वभाव से तंग आकर कम्पाउन्डर की बीवी राधा से यौन संबंध भी स्थापित कर लेते है। इस कहानी में उषा जी ने राजी नामक चरित्र की दृष्टि से देखते हुए, इस सारे मसले को मनुष्य की यौन संबंधी एक अनिवार्य आवश्यकता से अधिक महत्व नहीं दिया। इस कहानी के द्वारा उषा प्रियंवदा ने दाम्पत्य संबंधों में विच्छेद और दाम्पत्य मूल्यों के ह्रास की आधुनिक परिणति को भी उठाया है।
मनुष्य की स्वच्छंता और उन्मुक्त भोग की प्रवृत्ति ने उसके दाम्पत्य जीवन को गहराई से प्रभावित किया है। शादी के कुछ साल बाद ही अपने पति राजन से ऊब कर रात भर महफिलों में व्यस्त रहनेवाली नीलू और राजन के बीच एक अनकही दूरी आकार लेने लगती है। इसे महसूस करता हुआ राजन कहानी के अंत में नीलू की सहेली अचला की ओर आकर्षित होता है, वहीं अचला का अपना घर-संसार होने पर भी वह राजन के निकट आ जाती है, किंतु कहानी के अंत में वास्तविक परिस्थिति का बोध कराकर उषा जी ने अचला को राजन से अलग कर दिया है।
‘मोहबंध’ कहानी नीलू और राजन के दाम्पत्य सम्बन्ध में आये अलगाव की अभिव्यक्ति करती है। जबकि अचला को दाम्पत्य जीवन के मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध दिखाकर उषा प्रियंवदा ने नैतिक मूल्यों में अपनी आस्था की अभिव्यक्ति की है।
इस प्रकार उषा प्रियंवदा ने ‘जिंदगी और गुलाब के फूल’ कहानी संग्रह में आधुनिकताबोध की विविध परिणतियों का अपनी समस्त सकारात्मकता और नकारात्मकता सहित प्रस्तुत किया है। इन कहानियों में प्राप्त होनेवाली घुटन, टूटन, निराशा, भौतिकता, पीढ़ीगत अंतराल, आत्मकेन्द्रीयता, अकेलापन, अजनबीपन, मृत्युबोध, मूल्य संकट और जीवन मूल्यों में आये बदलाव तथा अस्तित्व बोध आधुनिकता के ही विविध रूपों की अभिव्यक्ति है जिसका सफलतापूर्वक यथार्थ आलेखन उषा प्रियंवदा ने किया है। साथ ही मनुष्य के जीवन में आ रहे विघटनात्मक परिवर्तनों से उसे बचाने के लिए मूल्यों में अपनी आस्था प्रकट करना, उनकी वैचारिक परिपक्वता को ही प्रस्तुत करता है।
संदर्भ
1. रामचंद्र वर्मा, मानक हिन्दी कोश, पृ. 174
2. श्याम सुंदर दास, हिन्दी शब्द सागर, पृ. 3574
3. रामधारी सिंह ‘दिनकर’, आधुनिक बोध, पृ. 24.
4. उषा प्रियंवदा, जिंदगी और गुलाब के फूल, पृ. 23
5. वही, पृ. 38
6. वही, पृ. 11
7. वही, पृ. 79
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