तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन के संदर्भ में दो दृष्टिकोण प्रचलित हैं । एक परंपरागत दृष्टिकोण है, जिसमें दो भाषाओं में लिखे गए साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन को तुलनात्मक साहित्य माना गया है । बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन को लेकर एक दूसरे दृष्टिकोण को भी स्वीकारा गया । इसके अन्तर्गत एक ही भाषा के साहित्य में सांस्कृतिक अंतर को केन्द्र में रखकर साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन किया जा रहा है । दलित विमर्श, नारी विमर्श अथवा आदिवासी विमर्श की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि मुख्य धारा के साहित्य से भिन्न है । इस परिधि पर स्थित विमर्श के परिप्रेक्ष्य में मुख्यधारा अर्थात् केन्द्रवर्ती साहित्य को देखना भी तुलनात्मक साहित्य के अन्तर्गत समाविष्ट हो जाता है । यहाँ तुलनात्मक साहित्य की इस नई दिशा के अंतर्गत नारीवादी चिंतन के परिप्रेक्ष्य में मोहन राकेश के नाटकों को देखने का प्रयास किया गया है ।
पल-पल परिवर्तित हो रहे परिवेश में पारंपरिक मूल्य अपनी सापेक्षता से दूर हट रहे हैं जिसके स्थान पर नये परिवेश के अनुरूप नये मूल्यों का अन्वेषण तथा उनका नव-संस्कार करना भी रचनाकार का एक प्रमुख दायित्व बन जाता है । मोहन राकेश ने इस दायित्व को भली भाँति समझा और पारंपरागत नाटकों की लीक से हटकर न केवल आधुनिक संवेदनाओं को नाटक का विषय बनाया वरन् हिन्दी नाटक को एक अभूतपूर्व रंगमंच भी उपलब्ध कराया । आधुनिक भावबोध को केन्द्र में रखकर मोहन राकेश ने अपने नाटकों में भोगे हुए यथार्थ जीवन को काल्पनिक, ऐतिहासिक और आधुनिक पृष्ठभूमि पर आलेखित किया है ।
स्त्रीवादी चिंतन के प्रारंभिक समय में स्त्रियों ने मत देने का अधिकार और कानूनी सुधारों के लिए संघर्ष किया । मार्क्सवाद से प्रभावित नारीवादी चिंतकों ने स्त्रियों के श्रम-पक्ष को उठाया । परिवार में किए गए श्रम की अनदेखी - चर्चा का विषय बनी और आगे चलकर समाजवादी नारीवाद में पारिवारिक श्रम पर चली बहस स्त्रियों के घरेलू श्रम के लिए वेतन की माँग करने लगी । परंपरागत मार्क्सवादी नारीवाद ने स्त्री की सामाजिक और सांस्कृतिक या यौन उत्पिड़न को महज आर्थिक शोषण का प्रतिबिम्ब माना था जिसके स्थान पर जैविकीय कारणों की प्रस्थापना करते हुए एक ‘यौन क्रांति’ की माँग रेडिकल नारीवादियों ने की । यहाँ तक आते-आते स्त्रीवादी चिंतन में एक बात स्पस्ट रूप से स्वीकृत हो गई कि स्त्रियों की इन दोनों स्थितियों में अंतर सामाजिक संरचना के कारण आया है । वह सामाजिक संरचना जो पुरुष-प्रधान है । पितृसत्तात्मकता नारी शोषण को असामान्य रूप से बढ़ा देती है । अतः पितृसत्ता का तीव्र विरोध हुआ । सामाजिक, पारिवारिक समानता के साथ-साथ स्वतंत्रता की जोरदार हिमायत होने लगी जो आगे चलकर पुरुषों से अलगाव और समलैंगिता की माँग में परिवर्तित हो गई ।
भारत में पिछले सौ वर्षों में नारी के प्रति दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन आया है । बीसवीं सदी के आरंभिक साहित्य में नारी की महत्ता स्वीकार करके, उससे सहानुभूति रखते हुए जीवन-संगिनी के रूप में देखा गया था, वह आगे चलकर पुरुष के समकक्ष खड़ी होने लगती हैं, उन्हें सामाजिक, आर्थिक समानता प्राप्त होती हैं और अंत में वे आक्रोश पूर्वक अपने अन्य अधिकारों की माँग करने हुए, पुरुष और परिवार के अत्याचारों का खुलकर विरोध करती हैं; न केवल समाज में वरन् राजनीति में भी । वे लैंगिक विभेद को भी कड़ी चुनौती देते हुए नकार देती हैं ।
मोहन राकेश के तीनों नाटकों में स्त्रीवादी चिंतन विकसित होता हुआ दिखाई देता है । ‘आषाढ का एक दिन’(1958) में आदर्श भारतीय स्त्री का समर्पण है, जबकि ‘लहरों के राजहंस’(1963) में स्त्री के अहं-पोषित रूप को अभिव्यक्ति मिली है, वहीं ‘आधे-अधूरे’(1969) में आर्थिक रूप से सक्षम और आधुनिक स्वतंत्र नारी निकम्मे पुरुष से विरोध करती हुई अपने अधिकारों की प्राप्ति हेतु विद्रोह करती है; अपने अधूरेपन को भरने के लिए स्वतंत्र रूप से पूर्णता की खोज करती है ।
मोहन राकेश के नाटक जब प्रकाशित हो रहे थे तब हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श का वैसा रूप स्पष्ट नहीं था जैसा कि आज है । संविधान ने स्त्री-पुरुष समानता का अधिकार तो दे दिया था किंतु 1956 में हिंदु कोड़ बिल पारित होने के बाद ही स्त्रियों को वयस्क मताधिकार प्राप्त हुआ । कानूनी स्तर पर समानता मिलने पर भी सामाजिक स्तर पर नारी की स्थिति पिछड़ी हुई थी जिसका प्रतिबिंब साठ के दशक की चर्चित कथाकार उषादेवी मित्रा के उपन्यासों में देखा जा सकता है । 1960 के बाद कृष्णा सोबती, शिवानी, उषा प्रियंवदा जैसी कई नयी महिला कथाकार सामने आई जिन्होंने शिक्षित, नौकरीपेशा और प्रणय संबंध में बंधी स्त्रियों की समस्यओं को अपने कथा-साहित्य में प्रस्तुत किया । किंतु सत्तर के दशक तक नारी का वह स्वतंत्र रूप साहित्य में नहीं दिखाई देता, जो नारी-विमर्श के जोर पकड़ने के पश्चात के साहित्य में दिखाई देता है । इस परिप्रेक्ष्य में मोहन राकेश के नाटकों को देखा जा सकता है । इनके नाटकों में मुख्य रूप से स्त्री-पुरुष संबंध और पुरुष अहं की समस्या का निरूपण किया गया है । अतः मोहन राकेश के नाटकों में पुरुष अहं और यह अहं स्त्रियों की स्वतंत्रता, उनके अधिकारों में किस प्रकार की भूमिका निभाता है उसे स्त्रीवादी विमर्श के आईने में देखना रोचक विषय बन सकता है ।
मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘लहरों के राजहंस’ और ‘आधे-अधूरे’ में स्त्री पुरुषों के संबंध का एक क्रमिक विकास होता हुआ दिखाई देता है जिसके साथ पुरुष और स्त्री के अहं का भी क्रमिका विकास होता है । पहले दो नाटक ऐतिहासिक परिवेश में आधुनिक भावबोध को रूपायित करते हुए स्त्री-पुरुष संबंध की अभिव्यक्ति करते है जबकि अंतिम नाटक मध्यवर्गीय समाज के स्त्री-पुरुष में हो रहे अहं की टकराहट की सीधी अभिव्यक्ति करता है ।
‘आषाढ का एक दिन’ मोहन राकेश का पहला नाटक है । इसमें कालिदास, मल्लिका, प्रियंगुमंजरी और विलोम के सम्बन्ध और अहं को मोहन राकेश ने सूक्ष्म दृष्टि से प्रस्तुत किया है । नाटक के प्रारंभ में कालिदास एक स्थानीय कवि मात्र है । बाद में उसकी प्रसिद्धि चारों दिशाओं में फैलती है और उज्जयिनी की शासन-व्यवस्था कालिदास का स्वागत करते हुए राजकवि का सम्मान देने के लिए निमंत्रण भेजती है । कालिदास अपनी काव्य सर्जनात्मकता का अटूट स्रोत, अपनी मातृभूमि और प्रेयसी मल्लिका से दूर होना नहीं चाहता, किन्तु अंततः मल्लिका कालिदास को उज्जयिनी भेज ही देती है । उज्जयिनी में कालिदास राजकवि एवं राजपुरुष की प्रतिष्ठा और मातृगुप्त की संज्ञा से सम्मानित होता है । अंततः वह प्रियंगुमंजरी से विवाह के बंधन में भी बंध जाता है । फिर भी कालिदास प्रियंगु से वह आत्मीय संबंध स्थापित नहीं कर पाता जो मल्लिका से था । विपन्नता की स्थिति उसे उज्जयिनी की ओर ले गई थी तो संबंधों में आत्मीयता का अभाव उसे पुनः मल्लिका के पास ले आता है। विपन्नता की स्थिति में भी, पुरुष (कालिदास) का जो अहं, स्त्री (मल्लिका) के प्रणय में विलीन हो गया था वह राजसी सुविधाओं के बीच रहकर भी प्रियंगुमंजरी से टकराता है । यही संबंध नाटक के उत्तरार्ध में पुनः कालिदास को मल्लिका की ओर खींच लाता है । यह और बात है कि समय व परिस्थिति के साथ मल्लिका के जीवन में परिवर्तन आता है, वह विलोम का वरण करने के लिए मजबूर हो जाती है। मल्लिका विलोम के बच्चे की माता भी बनती है परंतु फिर भी उसके ह्रदय में तो कालिदास ही है। पति के रूप में कालिदास की प्राप्ति न हो पाने पर मल्लिका के अहं को जो चोट पहुँची थी, वह चोट कभी भी विलोम को मन से स्वीकार नहीं कर पाती।
नाटक में कालिदास का चरित्र आत्मसीमित है । नाटक के आरंभ में जख़्मी हिरन शावक को पुचकारते कालिदास का सरोकार अपनी भावनाओं से ही है । वह मल्लिका की यथार्थ बातों की अवहेलना करता है । यह क्रम नाटक के अंत तक चलता रहता है । कालिदास ग्रामप्रांतर आकर भी अभावग्रस्त जीवन यापन कर रही मल्लिका से नहीं मिलता, वहीं नाटक के अंत में लौटकर उसी के पास आता है किंतु विशुद्ध भाव से नहीं बल्कि अपने अहं की पूर्ति के लिए । मल्लिका को उसी रूप में प्राप्त करने की चाह, जिस रूप में वह उसे छोड़कर गया था, भी कालिदास की नितांत आत्मसीमितता की परिचायक है । पुरुष की यह अहं भावना संपूर्ण नाटक में स्त्री की भावना, स्वतंत्रता का हनन करती है, उसे मात्र एक उपयोग की वस्तु मानती है जिसका पुरुष (कालिदास) ने महत्तम लाभ उठाया है फिर वह मल्लिका के रूप में काव्य सर्जन का स्रोत हो या प्रियंगुमंजरी के रूप में विपन्नता से निजात दिलानेवाली राजदुहिता हो ।
इस प्रकार कालिदास और मल्लिका के व्यक्तित्व में अंतर है । कालिदास का अहं मल्लिका के प्रेम को अनेक वस्तु में से एक वस्तु के रूप में स्वीकार करता है जबकि मल्लिका के लिए कालिदास सर्वस्व है । वह बिना किसी शर्त के अपने स्त्रीवादी अहं को विगलित करके कालिदास को सर्वस्व समर्पित कर देती है । “वे असाधारण हैं । उन्हें जीवन में असाधारण का ही साथ चाहिए था। सुना है राज-दुहिता बहुत विदुषी है ।”1 इस त्याग और समर्पण से युक्त मल्लिका की भावनाओं, संवेदनाओं को न तो पितृसत्तात्मक समाज समझ सकता है और न ही कालिदास । मल्लिका प्रेम संबंध को प्रामाणिक रूप से निभाती है और इसीलिए वह हार कर भी जीत जाती है, सह्रदय पाठकगण की सहानुभूति पाती है जबकि कालिदास बहुत कुछ पाकर भी सब कुछ खो देता है ।
मल्लिका के ‘जर्जर घर का परिसंस्कार’ के प्रसंग में प्रियंगु में जिस दर्प को भरने का राकेश ने प्रयास किया है उसमें सत्ताप्राप्त, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नारी की झांकी की मिलती है, दूसरी तरफ आर्थिक रूप से पराधीन नारी का वह रूप मल्लिका में दिखाई देता है जो किसी की कही सुनी अपमानित होकर भी सुन लेती है ।
स्त्री और पुरुष के अहं की टकराहट से जो विशृंखलता ‘आषाढ का एक दिन’ में पुरुष (कालिदास) और स्त्री (मल्लिका) के संबंध में आई थी उसका अगला चरण ‘लहरों के राजहंस’ (नंद और सुंदरी के संबंध) में दिखाई देता है । इस नाटक में बुद्ध और यशोधरा प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित नहीं हैं किंतु उनकी, उनके विचारों की छाया संपूर्ण नाटक में व्याप्त है । श्यामांग और अलका एक दूसरे को समर्पित है जिसमें अहं की टकराहट नहीं के बराबर है । आधुनिक भावबोध की अभिव्यंजना करने वाला नंद एक दुविधाग्रस्त मानसिकता वाला चरित्र है जबकि सुंदरी रूप-सौंदर्य के दर्प की वाहक है । यह संपूर्ण नाटक भोग बनाम निवृत्ति के द्वंद्व की अभिव्यक्ति करता है । सुंदरी भोगात्मकता पर बल देती है, भौतिक जगत से पूर्णः प्रतिवाद सुंदरी के अहं की भावना है, जबकि बुद्ध और यशोधरा निवृत्ति के मार्ग पर चल पड़े हैं । नंद एक साथ दोनों का वरण करना चाहता है, इसलिए नंद को दोनों तरफ से असंतुष्टि का अनुभव होता है ।
पति-पत्नी का जैसा पारस्परिक अंतर्विरोध नंद और सुंदरी के माध्यम से उभरकर आया है वैसा अंतर्विरोध कालिदास और मल्लिका में नहीं दिखाई देता क्योंकि मल्लिका कालिदास के प्रति पूर्णतः समर्पित है, जबकि सौंदर्य की मूर्ति सुंदरी अभिमानी, शंकालु और अहं भावना से परिचालित है । नाटक के अंत में नंद का अहं जब सुंदरी के अहं से बलवती हो जाता है तब सुंदरी का सौंदर्य उसे रोक नहीं पाता । बुद्ध के रास्ते पर चलते हुए वह केश-मुंडन करवा देता है । पुरुष की अहंवादी जीवनदृष्टि सुंदरी की जीवनदृष्टि, सुंदरी के इस विश्वास -“मैं ने उन्हें भेजा था तो एक विश्वास के साथ भेजा था ” को छिन्न-विच्छिन्न कर देती है ।
पुरुष के लिए नारी अपनी अनेक आवश्यकताओं में से एक आवश्यकता है । इस आवश्यकता का उपभोग वह करता रहता है । किंतु हमेशा सुंदरी के इशारों पर चलना भी उसे मंजूर नहीं है । वह बुद्ध और सुंदरी दोनों को एक साथ अपने में बना रखने की निरंतर कोशिश करता है । इस प्रकार नंद अपने अहं को पोषित करने के लिए ही सुंदरी के रूप-पाश में बंधता है, वहीं उसे छोडकर बुद्ध के पास भी इसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु जाता है । पर अब किसी भी रूप में नंद अपने को झुठलाकर नहीं जी सकता ।2 वह कहता है “मैं तुम्हारा या किसी का विश्वास औढकर नहीं जी सकता, नहीं जीना चाहता ।”3 उसके स्वतंत्र अस्तित्व की तलाश नाटक के अंत तक बनी रहती है ।
सुंदरी को अपने रूपाकर्षण पर पूर्ण विश्वास है और अभिमान भी । “नारी का आकर्षण पुरुष को पुरुष बनता है तो उसका अपकर्षण उसे गौतम बुद्ध बना देता है ।..... सोचकर खेद होता है कि इतने वर्ष पीड़ा सहने के बाद भी देवी यशोधरा अपनी पीड़ा का मान न रख सकी ।”4 सुंदरी के इस कथन में आधुनिक नारीवादी चिंतन का संकेत है । वह प्राचीन भारतीय आदर्श नारी की तरह अपने पति के पदचिह्नों का अनुसरण करने के स्थान पर पति को अपने रास्ते पर ले आने की निरंतर कोशिश करती है । सतही तौर पर सुंदरी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की हिमायती बनकर नाटक में उभरती है । किंतु “सुंदर, पृथ्वी के रूप में, पुरुष और उसकी चेतना को अपने तक बाँधे रखने की”5 उसकी चाह भिक्षु-वेशधारी नंद को देखकर अंततः उसके अहं, विश्वास और दर्प को चूर-चूर कर देती है । यहाँ पर यह कहना अनुचित नहीं होगा की मूलतः इस संपूर्ण नाटक में मोहन राकेश ने सुंदरी को पुरुष के प्रगति-मार्ग की बाधा के रूप में देखा है जो राकेश की पुरुषवादी दृष्टि की ही अभिव्यक्ति है ।
‘आधे-अधूरे’ में मोहन राकेश ने मध्यवर्गीय परिवार की मनोस्थितियों का विश्लेषण मनोवैज्ञानिक धरातल पर किया है । ‘आधे-अधूरे’ के सभी चरित्र आधे अधूरे हैं । आधुनिक परिवेश में जी रहे यह पात्र कुंठा और संत्रास के शिकार हैं। महेन्द्रनाथ और सावित्री– पति-पत्नी के अटूट रिश्ते में बंधे हैं, फिर भी अलगाव की विशद छाया उनके संबंध पर निरंतर बनी रहती है । पूर्णता की खोज में दौड़ रही स्त्री (सावित्री) अधूरे पुरुष (महेन्द्रनाथ) को स्वीकार नहीं कर पाती, जबकि अहं पर निरंतर चोटे खा रहा महेन्द्रनाथ सावित्री से प्रेम करते हुए भी मानसिक तंगदिली में जी रहा है । यही तनाव, संशय और कुंठा इन दोनों की नियति बन गई है । सावित्री महेन्द्रनाथ को एक निठल्ला, बेकार और पराधीन पुरुष मानती है, जिसकी अपनी कोई अहमियत या माद्दा नहीं है । इसीलिए वह इसकी खोज अन्य स्थानों पर, अन्य पुरुषों से करती रहती है । जबकि महेन्द्रनाथ भी स्वयं को बार-बार घिसने वाला रबर का एक टुकड़ा समझता है जिसकी परिवार के सदस्यों की दृष्टि में कोई अहमियत नहीं है । अपने अहं पर बार-बार कुठाराघात होने पर वह सावित्री को मारता-पीटता है जिससे परिवार में घृणा, उपेक्षा और तंगदिली की रुग्ण छाया बनी रहती है ।
आधुनिक दौर के पितृसत्तात्मक परिवेश में घर का आर्थिक बोझा उठाती हुई सावित्री जैसी भारतीय स्त्री की स्थिति का यथार्थ निरूपण मोहन राकेश ने इस नाटक में किया है । कामचोर पति, दिनभर मैगजीन की कटिंग्स इकट्ठा करनेवाला निठल्ला लड़का, स्वयं के प्रेमी के साथ भाग जानेवाली स्वच्छंद बिन्नी और जिद्दी छोटी लड़की किन्नी से बना परिवार चलाते-चलाते तनाव और घुटन से तंग आ चुकी सावित्री का अहं उसे बार-बार मुक्त होने को प्रेरित करता रहता है _ “मेरे पास बहुत साल नहीं है जीने को । पर जितने हैं, उन्हें मैं इसी तरह निभाते हुए नहीं काटूंगी । मेरे करने से जो कुछ हो सकता था इस घर का, हो चुका, आज तक । मेरी तरफ से अब अंत है उसका, निश्चित अंत ।”6 एक बेहतर पूर्ण जीवन की तलाश में वह सिंघानिया, जुनेजा, मनोज, जगमोहन के पास जाती है पर अंततः उसे पूर्णता कहीं नहीं मिलती । सभी पुरुष एक से है । सबके सब...... एक से । अलग-अलग मुखौटे पर चेहरा ?.... चेहरा सबका एक ही ।7 जुनेजा के साथ चल निकली स्त्री परिस्थितिवश घर में वापस आने के लिए मजबूर हो जाती है जबकि पुरुष अपनी दब्बू प्रकृति के कारण । पूरे नाटक में सावित्री को पाठक की सहानुभूती का पात्र बनाने वाले मोहन राकेश अंततः उसे एक ऐसी पारंपरिक सामाजिक दृष्टि से देखते है जो स्त्री के लिए घर वापस आने के अलावा कोई और विकल्प नहीं छोड़ती । यहाँ कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि नारी के अवैध संबंधों को पुरुष के विवाहेत्तर संबंधों की तरह स्वीकृति मिलनी चाहिए, पर बात यह है कि पीड़ा की शिकार हर हालत में सावित्री जैसी स्त्री ही होती है ।
सावित्री को अपनी अपूर्ण जिंदगी या अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए एक से दूसरे पुरुष तक यात्रा करते हुए दिखाकर मोहन राकेश ने स्त्री की स्वतंत्रता को आवश्यक माना है जो नारीवादी चिंतन का सकारात्मक पक्ष है । किंतु दूसरी तरफ मोहन राकेश जिस समय यह नाटक लिख रहे थे अर्थात बीसवीं सदी के सातवें दशक में, तब स्त्रीवादी चिंतन का उतना प्रस्तुतिकरण उस दृष्टि से नहीं होता था जो आज की रचनाओं में जिस दृष्टि से होता है । यही कारण है कि मोहन राकेंश सावित्री को जुनेजा के साथ चल निकलने का निर्णय लेते हुए तो दिखाते है परंतु अंततः उसे अपने ही निर्णय के अनुसार मुक्त होते हुए नहीं दिखा पाते । यहाँ पर सातवे दशक के भारत की पुरुषवादी दृष्टि को देखा जा सकता है जो स्त्री को स्वतंत्र करते हुए भी बंधनों की सीमाओं में जकड़े रखती है ।
इतनी चर्चा के पश्चात मोहन राकेश के तीनों नाटकों को में स्त्री के सशक्त रूप को विकसित होता हुआ देखा जा सकता है । कालिदास एक बड़ा कवि है जिसे सभी सुविधाएँ प्राप्त होना आवश्यक है । अतः यहाँ पर मल्लिका अनेक लड़कियों की तरह एक सामान्य लड़की है जो पूर्णतः कालिदास को समर्पित है । ‘लहरों के राजहंस’ में नंद का व्यक्तित्व कालिदास से ज्यादा दुविधाग्रस्त है । इसके सभी निर्णय सुंदरी के निर्णय से परिचालित होते है । यहाँ पर सुंदरी मल्लिका की तरह पुरुष के प्रति पूर्ण समर्पित न होकर अहं और दर्प की वाहक है । वह अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत व्यक्तित्व वाली नारी भी है । भले ही बाद में सुंदरी के विश्वास की हार होती है किंतु इस नाटक में वह अधिकारों के प्रति सजग नारी की प्रतिनिधि बनकर पाठक के सामने प्रस्तुत हुई है । ‘आधे-अधूरे’ का नायक महेन्द्रनाथ एक निकम्मा पुरुष है, अपने जीवन के अधुरेपन को भरने के लिए सावित्री से शादी करता है, परंतु नारीवादी अधिकारों की स्वतंत्रता पूर्वक माँग करनेवाली सावित्री उससे चार कदम आगे निकल जाती है । अपने अधिकारों के लिए लड़ रही सावित्री में नारीवादी चिंतन को देखा जा सकता है । जो स्त्री को किसी भी प्रकार के बंधनों से मुक्ति दिलाने की हिमायत करता है । पूर्णता की खोज करने के लिए वह I II III IV पुरुषों को आजमाती है पर हर कहीं निराश होती है । मोहन राकेश ने सावित्री के पास घर लौटने के अलावा और कोई विकल्प नहीं छोड़ा । यहाँ पर स्त्री की बंधनों में बंधी पराधीन स्थिति का प्रकाशन होता है । दूसरी तरफ कालिदास और नंद की ही तरह महेन्द्रनाथ भी स्त्री के निर्णय और आदेशों से परिचालित है । पुरुष अहं की टकराहट से स्त्री चरित्र तनाव और यातना के शिकार होते है पर अंततः पुरुष (महेन्द्रनाथ) अपने ही अहं से स्वयं टकराता है, लड़ता है, लड़खडाता है और अंततः घर वापस आने को विवश हो जाता है ।
नाटक के पात्रों से पाठक की सहानुभूति को केन्द्र में रखकर इन नाटकों का मूल्यांकन करे तो पहला और तीसरा नाटक नारी चिंतन के परिप्रेक्ष्य में सबल है जबकि दूसरा नाटक कमजोर है । मल्लिका अनेक दुःख और विपत्ति सहकर भी कालिदास के प्रति पूर्ण समर्पित है और इसीलिए पाठकों की सहानभूति मल्लिका के साथ है । किंतु ‘लहरों के राजहंस’ में नाट्यकार ने जिस महत उद्देश्य की पूर्ति को कथा का आधार बनाकर नाटक का सर्जन किया है, वह नारी का बाधक रूप ही प्रस्तुत कर रहा है । इसी कारण पाठकों की सहानुभूति जो पहले नाटक में मल्लिका के साथ थी वह दूसरे नाटक में सुंदरी के साथ न रहकर नंद के साथ हो जाती है । ‘आधे-अधूरे’ में अपने परिवार का निर्वाह कर रही सावित्री को निश्चित रूप से पाठकों की सहानुभूति प्राप्त है । अनेक पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक समस्याओं से जूझनेवाली सावित्री निरंतर संघर्ष करती है । वह भले ही पूर्णता की खोज में दर-दर भटकती है फिर भी पाठक की सहानुभूति उसे ही मिलती है । इस प्रकार पहले और तीसरे नाटक में सह्रदय पाठक वर्ग स्त्री चरित्रों के साथ ही है ।
हिन्दी साहित्य में मोहन राकेश के नाटकों को विविध दृष्टियों से देखा जाता रहा है । यहाँ उन्हें नवीन दृष्टि से नारीवादी चिंतन के परिप्रेक्ष्य में देखा गया है । मोहन राकेश के नाटकों की इतनी चर्चा के पश्चात यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने अपने नाटकों में स्त्री को परंपरागत पितृसत्तात्मक समाज की दृष्टि से देखने के अतिरिक्त नारी का एक सशक्त रूप भी प्रस्तुत करने का प्रयास किया है जो पुरुष के प्रति समर्पण से, लेकर स्त्री अधिकारों के स्वतंत्रतापूर्वक माँग करती हुई नारी के रूप में विकसित होता है । भले ही उनकी पुरुषवादी दृष्टि नाटक के अंत में स्त्री के लिए कोई सशक्त विकल्प नहीं रख पाई, किंतु अपने परिवेश की सीमाओं में रहते हुए भी उन्होंने नारी के जिस स्वतंत्र रूप को प्रस्तुत किया है वह सराहनीय है । आधुनिक समय में स्त्रियों की समस्याओं को प्रस्तुत करनेवाले, उनसे सह्यदयता का परिचय देनेवाले राकेश प्रत्यक्ष रूप से भले ही न हो, परंतु परोक्ष रूप से तो, उन्हें स्त्री के पक्षधर जरूर कहे जा सकते हैं ।
संदर्भ
1 आषाढ का एक दिन, मोहन राकेश, पृष्ठ सं. 52
2 लहरों के राजहंस, मोहन राकेश, पृष्ठ सं. 188
3 वही, पृष्ठ सं. 107
4 वही, पृष्ठ सं. 45-46
5 वही, पृष्ठ सं. 19
6 आधे-अधूरे, मोहन राकेश, पृष्ठ सं. 67
7 वही, पृष्ठ सं. 90